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जैन आगम : वनस्पति कोश
पशु विशेष तौर से खाते हैं। मज्जरतृण मधुर और गायों बं०-मेषसिंगी। मंo-मेढाशिगी, कावकी। ता०का दूध बढ़ाने वाला है।
शिरुकुरंज। ते०-पोडापत्री। ले०-Gymnema Sylve (वनौषधि चन्द्रोदय आठवां भाग पृ० १३) stre R.Br. (जिमनेमा सिल्वेस्ट्रे) Fam. Asclepiadaceae
(एस्क्लेपिएडेसी)। महररस
उत्पत्ति स्थान-यह कोंकण त्रावणकोर, गोवा,
दक्षिण भारत में विशेषरूप से होती है। बिहार एवं उत्तर महुररस (मधुररसा) मुलहठी प० १/४८/४
प्रदेश में भी कहीं-कहीं मिलती है तथा बागों में लगाई देखें मधुररस शब्द ।
हुई पायी जाती है।
विवरण-इसकी लता चक्रारोही, पतले कांड की, महुसिंगी
काष्ठमय, रोमश तथा बहुत फैली हुई होती है। पत्ते महुसिंगी (मधुशृङ्गी) गुडमारभ० २३/१ प० १/४८/३ अभिभुख, अंडाकार आयताकार या लट्वाकार, कभी-कभी
निरुक्ति-शृङ्गी-शृणाति हिनस्ति रोगान्, हृद्वत् १ से २ इंच लंबे, कभी-कभी ३ इंच लंबे, नोकदार 'श्रुहिंसायाम्'। यह अनेक रोगों का नाश करती है अतः एवं मृदुरोमश होते हैं । पुष्प सूक्ष्म, पीले, समस्थ मूर्धजक्रम इसे शृंगी कहते हैं। (निघंटु आदर्श पूर्वार्द्ध पृ० ३२५) में निकले हुए एवं आभ्यन्तर कोश घण्टिकाकार-चक्राकार
विमर्श-मधुशंगी शब्द आयुर्वेदीय कोषों तथा होते हैं। फली २ से ३ इंच लंबी, .२ से ३ इंच मोटी निघंटओं में नहीं मिलता है। ऊपर लिखित निरुक्ति के कठोर, भालाकार क्रमशः नोकीली होती है। दो में से प्रायः आधार पर इसका अर्थ फलित होता है-मधुशृंगी याने एक फली का विकास नहीं होता। इसके सर्वांग में दूध मधु को नाश करने वाली (गुडमार)।
होता है। मूल १.२५ इंच मोटा तथा बाहर से मुलायम एवं उस पर बीच-बीच में सीधी, लंबाई में गढेदार नालियां होती हैं। मूल सूखने पर छाल पतली होकर आडे बल में फैल जाती है। इसका स्वाद साधारण कड़वा होता है। इसकी पत्तियों को चबाने से जीभ का स्वाद ग्रहणशक्ति नष्ट हो जाती है, जिससे १ से २ घंटे तक मधुर तथा तिक्तरस का स्वाद मालूम नहीं पड़ता। इसी से इसे गुडमार या मधुनाशिनी कहते हैं।
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ४४३, ४४४) पुष्पकाट
माउलिंग माउलिंग (मातुलुङ्ग) बिजौरा नींबु
भ० २२/३ प० १/३६/१ मातुलुङ्ग के पर्यायवाची नाम
बीजपूरो मातुलुङ्गो, रुचकः फलपूरकः ।।१३० । लता 17
बीजपूर, मातुलुङ्ग, रुचक तथा फलपूरक ये सब
बिजौरानींबु के संस्कृत नाम हैं। अन्य भाषाओं में नाम
(भाव०नि० आम्रादिफल वर्ग० पृ० ५६३) सं०-मधुनाशिनी। हि०-मेढासिंगी, गुडमार |
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