________________
44
उत्पत्ति स्थान - यह बंगाल, उडीसा, मध्यप्रदेश, बंबई, गुजरात, कनाडा आदि दक्षिण भारत तथा कूचबिहार, रंगपूर आदि कई स्थानों की रेतीली जंगली एवं पहाडी भूमि में प्रचुरता से पैदा होता है।
विवरण- इसकी लता आरोहणशील चिकनी एवं प्रायः दुर्गन्ध युक्त होती है। कांड कोनदार होते हैं। तन्तु बिना शाखा के होते हैं। पत्ते हृदयाकार कट्वाकार, अखण्ड या ३ खंड वाले प्रायः लहरदार दन्तूर किनारे वाले एवं २ से ४.५ इंच व्यास के होते हैं। पुष्प पीले होते हैं। इसमें नर एवं नारी पुष्पों की लताएं अलग-अलग होती हैं। नरपुष्प की लता में फल न लगने के कारण उसे बांझ खेखसा या वन्ध्याकर्कोटकी कहा जाता है। फल वाली नारीपुष्प की लता होती है, जिसे कर्कोटकी कहते हैं। नरपुष्प वाले पतले एवं २ से ६ इंच लंबे दण्ड से युक्त तथा नारीपुष्प के दंड छोटे या उतने ही बडे होते हैं। फल १ से ३ इंच लंबा, दीर्घवृन्ताभ एवं तीक्ष्णाग्र या अंडाकार होता है तथा इस पर मुलायम कांटे सदृश उभार होते हैं। इसके नीचे कन्दवत् बहुवर्षायु मूल होता है, जो शलगम की तरह किन्तु लंबा पीताभ, श्वेत, गोल कंकणाकृति चिन्हों से युक्त एवं स्वाद में कसैला होता है।
(भाव० नि० शाकवर्ग० पृ० ६९१, ६९२)
M
कच्छा
प०१ / ४६
कच्छा (कच्छा) भद्रमुस्ता कच्छा | स्त्री । भद्रमुस्तायाम्, श्वेत दुर्व्वायाम्, चौरिकायाम्, वाराहीकंदे |
Jain Education International
(वधक शब्द सिंधु पृ० १७९ )
विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में कच्छा शब्द जलरुह वर्ग के अन्तर्गत है। ऊपर के चार अर्थो में भद्रमुस्ता और श्वेत दुर्वा ये दो अर्थ जलरुह के अन्तर्गत आ सकते हैं। यहां भद्रमुस्ता अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। अन्य भाषाओं में नाम
हि० - मुथा, मोथा, भद्रमोथा । म० - मोथा, बिम्बल। बं०मोथा, मूथ। बंबई - बडीकमोठ, मुस्ता। पं० - डीला । गु०मोथ, मोथा। ता०-कारा, कोरइ । ते० भद्रमुस्त, तुङ्गमुस्ते ले०-Cyperus Rotundus ( सायपरस रोटुण्डस्) ।
उत्पत्ति स्थान - भारतवर्ष में सर्वत्र यह ६००० फीट की ऊंचाई पर जमीन, बगीचा और सड़क के किनारे खुली जगहों
जैन आगम : वनस्पति कोश
में, पानी के स्थानों में, नदियों, तालाबों में, जलभरे गडहों में पाया जाता है।
विवरण - यह कर्पूरादि वर्ग और मुस्तादि कुल की क्षुद्र वनस्पति होती है। नागरमोथा जहां सूखी जमीनों में पैदा होता है वहां यह भद्रमोथा सजल जमीन में या जल के किनारे पैदा होता है। क्षुप तृणाकार काण्ड तनु, सरल, कांड के शिखर पर लंबे तनु, चक्र के आराओं की तरह जुडे हुए पत्र । इसकी डंडी तिकोनी होती है और वह १ से २ फुट तक ऊंची होती है। डंडी के सिरे पर फूल का गुच्छा आता है। उसके ऊपर हरे रंग के छोटे-छोटे फूल आते हैं। इन फूलों के इधर उधर लंबे-लंबे पत्ते भी होते हैं। इसकी जड़ें गोल बाहर से काली कठोर और भीतर से सफेद सुगंधित होती है अथवा सहज लाल होती है। यह कंद भूमि में फैलता हुआ तृणरूप कांड देता जाता है। यही जडें औषधि प्रयोग के काम में आती हैं।
( धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ५ पृ० ४७० )
-
कच्छुरी
प० १ / ३७ / १
कच्छुरी (कच्छुरी) आमला कच्छुरी | स्त्री । धातक्याम् ( वैद्यक शब्द सिन्धु पृ० १८० ) कच्छुरा । स्त्री । कपिकच्छौ, रक्तदुरालभायाम्, कर्पूरशट्याम् आम्रहरिद्रायाम्, महाबलायाम्। (वैद्यक शब्द सिंधु पृ० १८० )
विमर्श - कच्छुरा के ऊपर पांच अर्थ दिए गए हैं और कच्छुरी का एक अर्थ है। प्रस्तुत प्रकरण में कच्छुरी शब्द गुच्छ वर्ग के अन्तर्गत है। इसलिए ऊपर के ६ अर्थों में धातकी (आमला) अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। क्योंकि आमला के फूल गुच्छों में शाखाओं से सटे रहते हैं।
विवरण- इसका वृक्ष मध्यमाकार का सुहावना होता है, किंतु जंगली वृक्ष ऊंचे कद का बडा होता है। छाल चौथाई इंच मोटी हलके खाकी एवं छिलकेदार होती है। लकडी लाल रंग की और मजबूत होती है। इसमें सारभाग नहीं होता है। पत्ते छोटे-छोटे इमली के पत्तों के समान और फूल लाई के दानों के समान हरापन युक्त, पीले रंग के गुच्छों में शाखाओं से सटे रहते हैं। वंसत ऋतु में जब इसके पुराने पत्ते झड जाते हैं तब वृक्ष पत्रशून्य दिखाई पडता है। उसी समय वह फूलता है और नवीन पत्ते निकलते हैं। फल डालियों में सटे हुए दिखाई देते हैं। वे गोल चमकदार और ६ रेखाओं से युक्त होते हैं। कच्ची अवस्था में हरे, पकने पर हरापन युक्त किंचित् पीले या सुर्ख
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org