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विमर्श - निघंटुओं और आयुर्वेद के शब्द कोशों में अंतरकंद शब्द नहीं मिला है। सम्भव है यह क्षेत्र विशेष की भाषा का शब्द हो। रास्ना का नाम अंतरदामर शब्द तेलगु में मिला है। यह शब्द गुणवाचक लगता है। कंद के अंतर कंद होना चाहिए। रास्ना के मूल जमीन के अंदर ही अंदर २५ से ४० फुट तक लम्बे चले जाते हैं। इससे अनुमान किया जा सकता है कि अंतरकंद रास्ना होना चाहिए। रास्ना के पर्यायवाची नाम -
रास्ना युक्तरसा रस्या, सुवहा रसना रसा । एलापर्णी च सुरसा, सुगंधा श्रेयसी तथा ॥ १६२ ॥ रास्ना, युक्तरसा, रस्या, सुवहा, रसना, रसा, एलापर्णी, सुरसा, सुगंधा तथा श्रेयसी ये सब रास्ना के नाम हैं। (भाव० नि० हरितक्यादिवर्ग पृ० ७९ )
अन्य भाषाओं में नाम -
हि० - रास्ना, सुरहि, वायसुरी, राशना, रायसन । म०रासन, रास्ना । गु० - रासना, रास्ना, रासनो। कच्छी-फाड, उफाड़, सन्निफाड़ । राज-राठकापान, रायसन, रासना, छोटाकलिया। पं०- मरिमण्डी, रासना । काश्मीरी - रासन | बं०रासना। बिहारी - रास्ना रचना क० राशना केदारे, रासना, रान्न, रास्मे । ते०रास्ना, किरमि, चक्कु । ता० - रास्ना | मल०रास्ना । मालवी० - रास्ना, राठका पानी। सिंधी कुरासना
कउरासन, काउरासन। अ०-रासन, रहसन, रवासन। फा०
रासन, रहसन | उर्दू ० - रासन, रहसन, रवासन। अंo-Indian ground sel (इन्डियन ग्राउण्ड सेल) । ले० - Pluchea Lanceolate (प्लूचिया लेन्सि ओलेटा ) ।
पत्र
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Bat
पुष्प
डोड़ा
मूल
जैन आगम : वनस्पति कोश
उत्पत्ति स्थान - यह भारत में पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, सिंध, गुजरात और अफगानिस्तान में प्रभूत मात्रा में पायी जाती है। गुजरात में वीसा बाड़ा (मूल द्वारिका) और टुकड़ा गांवों की सीमाओं में, राजस्थान के पाली जिला के बिलाड़ा गांव के आस-पास तथा अन्यत्र यह खूब होती है। वहां इसको वायसुरई या वायसुरी भी कहते हैं। तथा उक्त सभी प्रदेशों में रास्ना के नाम से प्रयुक्त होता है।
विवरण - यह हरितक्यादिवर्ग और भृङ्गराजादि कुल के रास्ना के क्षुप प्रायः १२ माह ही देखे जाते हैं तथापि चातुर्मास के पश्चात् शरद् ऋतु में विशेषतया उपजते हैं। यह क्षुप १ से ३ फुट तक ऊंचे होते हैं और हरितक्षुप बड़े ही सुन्दर लगते हैं। इसके मूल जमीन के अन्दर ही अन्दर २५ से ५० फुट तक उससे भी अधिक लम्बे चले जाते हैं। उसके उपमूल चारों ओर फैलते हुए होते हैं। वे जमीन में जैसे-जैसे लम्बे बढ़ते हैं। वैसे जमीन के ऊपर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पुनः उनमें से अंकुर फूटकर निकलते हैं। यह जहां उगता है वहां प्रायः इसी का एक स्वतन्त्र जाल सा बिछ जाता है।
काण्डशाखाएं सूतली से लेकर अंगुली जितनी मोटाई वाले होते हैं। उन पर भूरे रोम होते हैं। कोमल शाखाओं पर ऊन या कपास के जैसे लम्बे श्वेत रोम घने होते हैं । काण्ड पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटी-छोटी गांठ सी होती है । पत्र जिह्वा के आकार के, यह पत्र गाढे हरिताभ अन्तर पर आते हैं। वे एक इंच से २.५ इंच तक होते हैं तथा १/२ इंच से १.२५ इंच तक चौड़े होते हैं। पत्र के दोनों पृष्ठों पर रोमावलि रहती है। पत्र के नीचे वृन्त नहीं होता। अगर होता है तो बहुत ही छोटा होता है । पत्रगत शिराएं अस्पष्ट एवं ऊपर को जाती हुई होती हैं। पत्रों में किंचित् सुगंध आती है, पुष्प के गुच्छे शाखाओं के अग्रभाग पर आते हैं। उसमें प्रत्येक पुष्प दो से तीन लाइन लम्बे होते हैं। उस पर चौड़े प्राय: रोम की रोमावली जैसे पुष्पपत्र आये हुए रहते हैं। वे अन्दर से धनिये के दल के समान दिखाई देते हैं। पुष्प रक्ताभा वाले कुछ जामुन रंग के होते हैं। फल बीज गहरे भूरे रंग में, सूक्ष्म, स्निग्ध,
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