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जैन आगम वनस्पति कोश
दव्वहलिया
दव्वहलिया (दार्वीहरिद्रा) दारूहल्दी प० १/४७ दावहरिद्रा के पर्यायवाची नाम
दार्वी दारुहरिद्रा च पर्जन्या पर्जनीति च । कटङ्कटेरी पीता च भवेत् सैव पचम्पचा । । सैव कालीयकः प्रोक्तस्तथा कालेयकोपि च । पीतद्रुश्च हरिद्रुश्च पीतदारु च पीतकम् ।। दार्वी, दारुहरिद्रा, पर्जन्या, पर्जनी, कटङ्कटेरी, पीता, पचम्पचा, कालीयक, कालेयक, पीतद्रु, हरिद्रु, पीतदारु और पीतक ये सब दारूहल्दी के पर्यायवाची शब्द हैं। (भाव०नि० हरीतक्यादि वर्ग० पृ० ११८ )
जरिठक
शाख
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पारव
फूल
अन्यभाषाओं में नाम
दारुहलदर
हि० - दारुहलदी, दारुहरदी, दारहलद । बं०दारुहरिद्र । म० - दारु हलद, जरकिहलद । गु०मा० - दारुहलदी । क० - दोद्दा मरदरिसिन । ते० - मनिपसुपु । ता० - मरमंजिल । कुमा० - चित्रा, कीलमोरा । पं०-सुमलु । ने० - चित्रा फा० - दारचोबह, फिलझरह । अ० - दारहलक । अं०
Indian berberry (इन्डियन बरबेरी) ले० - Berberis Spe cies बर्बेरिस की विभिन्न जातियां) Fam. Berberidaceae (बर्बेरिडॅसी) ।
उत्पत्ति स्थान- इसकी १२ - १३ जाति की कंटकित झाडियां अधिकतर हिमालय के पहाड़ों पर तथा आसाम में पाई जाती है। इनमें से चार जातियां मध्य तथा दक्षिणभारत (नीलगिरि पर्वत) में पाई जाती है। छोटा नागपूर के पारसनाथ की पहाड़ी पर भी एक भेद पाया जाता है।
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विवरण- हरीतक्यादि वर्ग एवं अपने ही दारुहरिद्रा कुल के इसके सदा हरे भरे, कंटकित गुल्म ४ से ५ या १५ फुट तक ऊंचे, कांड ८ इंच व्यास के चिकने, चमकीले, छाल ऊपर से धूसरवर्ण की अंदर से पीली, अन्तःकाष्ठ गहरे पीतवर्ण का तथा कड़ा होता है । पत्र चर्मवत्, मोटे, कडे, मजबूत, सूक्ष्म शिराजाल युक्त, सरल धार वाले, टहनियों पर दो दो या तीन-तीन इंच के अंतर पर आकार में इंगुदी या सनायपत्र जैसे नोंकदार या कुछ कटे हुए कंगूरेदार तथा कंगूरे के चारों ओर सूक्ष्म कांटे होते हैं । १ से १.५ इंच लंबे, ३/४ इंच चौड़े। पत्रगुच्छे के निकट टहनियों पर ३ कांटे होते हैं और इन गुच्छों में एक छोटा-सा पुष्पघोष (घुमचा ) निकलता है । पुष्प छोटे-छोटे निम्बपुष्प जैसे, पीतवर्ण के उक्त २ से ३ इंच लंबी पुष्पघोष या मंजरी में वसंतऋतु में आते हैं। फल ग्रीष्मारंभ में पुष्पों के झड़ जाने पर, फल हरे रंग के आते हैं, जो फिर क्रमशः नीले या लाल रंग के रजावृत्त, किसमिस जैसे हो जाते हैं। मूल मोटी तथा स्थान-स्थान पर बहुत शाखाओं में विभक्त होती है। ये मूल की शाखाएं एक ओर विशेषतः भूमि की ओर झुकी रहती है। इस पौधे की ताजी लकड़ी सुगंधित, स्वाद में कडुवी और कषैली होती है। इसे कितना भी उबालें तो भी यह पीली ही रहती है । (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ३ पृ० ४३४ )
दव्वी
दव्वी (दर्वी) दारुहलदी
दव के पर्यायवाची नाम
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भ० २०/२०/ प० १/४४/२
अन्या दारुहरिद्रा च, पीतद्रुः पीतचंदनम् ।। ५७ ।।
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