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इन दोनों आगमों और उनकी व्याख्याओं के आधार पर यह स्पष्ट निर्णित होता है कि प्रज्ञापना का समालोच्य पाठ सेवालगत्थि होना चाहिए।
प्रज्ञापना की पूर्व उद्धृत प्रथम गाथा में 'पीईय पाण' पाठ है जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति (वृत्ति पत्र ६७) में 'बीयगुम्मा', 'बाणगुम्मा' पाठ मिलता है। उपाध्याय शांतिचंद्र ने 'बीजकगुल्माः', 'बाणगुल्माः'-यह संस्कृत रूप दिया है। आचार्य मलयगिरि ने भी जीवाजीवाभिगम की वृत्ति (पत्र २६४) में ये ही संस्कृत रूप दिए हैं। इन दोनों के आधार से यह ज्ञात होता है कि प्रज्ञापना की उक्त गाथा में भी 'पीईय पाण', के बदले बीअक बाण पाठ होना चाहिए।
भाव प्रकाश के अनुसार सैरेयक, कुरण्टक और बाण-ये तीनों एक ही जाति के क्षुप हैं। सैरेयक को कटसरैया कहा जाता है। पीले फूल की कटसरैया को कुरण्टक, लाल फूल की कटसरैया को कुरबक और नीले फूल की कटसरैया को बाण कहा जाता है।
भावप्रकाशनिघंटु पुष्प वर्ग, पृ. ५०२ उक्त गाथा में सैरेयक, कुरण्टक और बाण-ये तीन शब्द उपलब्ध हैं।
गंठि, पीइय, पाण-ये तीन ही नहीं और भी अनेक समालोच्य शब्द वनस्पति और प्राणि वर्ग के प्रकरणों में अनुसन्धान सापेक्ष हैं।
प्रज्ञापना के आदर्शों (१/३७) में अट्टरूसग के स्थान पर अद्दरूसग पाठ मिलता है। यहां भी संयुक्त टकार के स्थान पर संयुक्त दकार लिखा गया प्रतीत होता है। अर्थानुसन्धान से इस परिवर्तन को पकड़ा जा सकता है। प्रज्ञापन की वृत्ति में इस पद का अर्थ उपलब्ध नहीं है। टब्बा में इसका अर्थ अरडूसो किया गया है। अरडूसो का हिन्दी रूप अडूसा है। शालिग्राम निघंटु में अडूसा के अर्थ में आटरूषक तथा वनस्पति कोश में अटरूषक शब्द मिलता है। इस आधार पर 'अट्टरूसग' पाठ ही मूल पाठ प्रतीत होता है।
यदि वर्तमान में उपलब्ध वनस्पति कोशों, विहार प्रान्तीय शब्द कोशों का प्रयोग किया जाए तो अनेक पाठ शुद्ध हो सकते हैं और उनके अर्थ का भी सम्यक् बोध हो सकता है।
आगम साहित्य में प्रयुक्त अधिकांश वनस्पतिवाचक शब्दों को खोज लिया गया है। कुछेक शब्द अब भी अज्ञात हैं। देश और काल के व्यवधान के कारण परिचय की कठिनाई असंभव नहीं है। फिर भी इस वनस्पति कोश से पाठ संशोधन और पाठ के अर्थ बोध की समस्या काफी हद तक सुलझ जाएगी। इस कार्य में मुनि श्रीचंद जी ने अत्यधिक श्रम किया है। झूमरमल बेंगानी जो आयुर्वेद और वनस्पति का विशेषज्ञ है, का विशेष योग रहा है। इन दोनों के श्रम-साधना से यह कार्य निष्पन्न हुआ है।
आगम संपादन की श्रृंखला में आगम शब्द कोश, देशी शब्द कोश, एकार्थक कोश और निरुक्त कोश-ये चार कोश पहले प्रकाश में आ चुके हैं। उनकी उपयोगिता प्रमाणित हुई है। यह पांचवा वनस्पति कोश भी आगम-अध्येता के लिए बहुत उपयोगी बनेगा।
हमने आगम संपादन के जिस कार्य का शुभारंभ किया था, वह कार्य उत्तरोत्तर विकासशील है, यह सबके लिए प्रसन्नता का विषय है।
१ दिसम्बर, १६६५ जैन विश्व भारती, लाडनूं
गणाधिपति तुलसी
आचार्य महाप्रज्ञ
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