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जैन आगम : वनस्पति कोश
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माल
हैं। इसकी डंडी जो मूल से निकलती है वह सीधी और तो घुन जाती है और निःसत्व हो जाती है। डिब्बे या थैलों पत्तेदार होती है। पत्ते इसके नागदौन के पत्र जैसे कटे में रखने से तो और भी जल्दी सड़ जाती है। अतः घुन किनारे वाले, किन्तु चौड़ाई में उससे कम चौड़े, केवल से रक्षा करने के लिए इसे बालुका या रेत के भीतर २ इंच से ४ इंच तक और नोकदार होते हैं। ये पत्ते कुछ दबाकर रखते हैं। मोटे, चमकीले, ऊपर हरे और नीचे से पीले होते हैं। विश्व के रोगी को या प्रायः सफल रोगों को दूर इसकी शाखायें चिपटे आकार की, उक्त डंडी की जड़ करने वाली होने से यह विश्वा या अतिविश्वा नाम से वेदों से ही निकलती है।
में प्रसिद्ध है। पुष्प-पत्रवृन्त के मूल से पुष्पदंड निकलते हैं, जो
(धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० १२०,१२१) कि पत्रवृन्त से दीर्घतर होते हैं। पुष्पदंडों में बहुत पुष्प लगते हैं। ये पुष्प १ से १.५ इंच लंबे, चमकदार नीले या पीले, कुछ हरे रंग के, बैंगनीधारी वाले होते हैं। अच्छे
माल (माल) मालती, पाठा प० १/३७/५ खिले हुए पुष्प टोपी की तरह दिखाई देते हैं। कन्द-क्षुप के नीचे जमीन के अंदर एक बृहत्
माल (पुं) मालती। मालती। धूसर वर्ण लहरदार कन्द होता है। इस कंद से ही धूसर
(शालिग्रामौषधशब्दसागर पृ० १३८) वर्ण की छोटी-छोटी कई कन्द निकलती हुई, जमीन के मालती-स्त्री० वनस्पति० पाठा। जाती, जाई । अंदर फैली हुई रहती है। मुख्य मूल कंद की अपेक्षा, ये
(आयुर्वेदीय शब्द कोश पृ० १०८८) शंखाकार छोटी-छोटी कन्हें विशेष प्रभावशाली होती हैं विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में मालशब्द गुच्छवर्ग के और ये ही अतीस कहलाती हैं । ये बृहत् मूल कंद से अलग अन्तर्गत है। ऊपर मालती के दो अर्थ किए गए हैं। पाठाके करके शुष्क कर ली जाती है। ये १/३ से २ इंच तक पुष्प गुच्छों में आते हैं। इसलिए यहां पाठा अर्थ ग्रहण लंबी, आधी इंच मोटी, ऊपर से धूसर या बादामी वर्ण कर रहे हैं। की. किन्त तोड़ने पर दध-सी सफेद चखने में अत्यन्त मालती के पर्यायवाची नामकड़वी और गन्धरहित होती है।
पाठाऽम्बष्ठाऽम्बष्ठकी च, प्राचीना पापचेलिका मूल के रंगभेद से ही इसके प्रायः तीन भेद माने
वरतिक्ता बृहत्तिक्ता, पाठिका स्थापनी वृकी।।६८ // गये हैं। श्वेत मूल वाली को श्वेतकंदा, काली जड़ वाली मालती च वरा देवी, त्रिवृत्ताऽन्या शुभा मता।। को कृष्णकंदा और लाल जड़वाली को अरुणा कहते हैं। पाठा, अम्बष्ठा, अम्बष्ठकी, प्राचीना, पापचेलिका, मदनपाल निघंटुकार एक और पीली अतीस भी बतलाते वरतिक्ता बृहत्तिक्ता, पाठिका, स्थापनी, वृकी, मालती, हैं। श्वेत सबसे उत्तम और श्रेष्ठ है। किन्तु आजकल तो वरा, देवी और त्रिवृत्ता वे सभी पाठा के पर्यायवाची हैं। प्रायः एक ही प्रकर की अतीस मिलती है जो रंग में ऊपर
(धन्व० नि० १/६६ पृ० ३६) से किंचित् धूसर और तोड़ने पर श्वेत दुधिया निकलती अन्य भाषाओं में नाम
हि०-पाठा, पाठ, पाढ, पाठी, पाढी, पुरइन, मूल या असली अतीस छोटी-छोटी होती है और पाढी। बं०-आकनादि, निमुक, एकलेजा। म०-पहाड़ शाखायें लंबी-लंबी होती हैं। इनमें भी जो अच्छी अतीस बेल। गु०-वेणीवेल, करेढियुं । क०-पडवलि । होती है वह लंबगोल होती है। उसके नीचे की ओर का ता०-अप्पाडा, पोंमुततै । गोवा०-पारवेल । ते०-पाटा, सिरा तीक्ष्ण होता है, ऊपर की ओर पान की कलिका विरुबोड्डि। लें-Cissampelos pareiraLinn (सिसॅम्पेलॉस् सी होती है, जो सरलता से टूट जाती है। तोड़ने पर पॅरेरा लिन०) Fam. Menispermaceae (मेनिस्पर्मेसी) भीतर से श्वेत और बीच में इर्द गिर्द ४ काले बिन्दु होते अंo-Velvet Leaf (वेल्वेट लीफ)। हैं। यह दो माह के अंदर ही यदि सुरक्षित न रखी जाय
(भाव०नि० गुडूच्यादिवर्ग पृ० ३६५)
है।
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