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जैन आगम वनस्पति कोश
स्पर्शलज्जा के पर्यायवाची नाम
रक्तपादी शमीपत्रा, स्पृक्का खदिरपत्रिका | सङ्कोचनी समङ्गा च, नमस्कारी प्रसारिणी । ।१०३ ।। लज्जालुः सप्तपर्णी स्यात्, खदिरी गण्डमालिका लज्जा च लज्जिका चैव, स्पर्शलज्जाऽस्ररोधनी । ।१०४ ।। रक्तमूला ताम्रमूला, स्वगुप्ताऽञ्जलिकारिका नाम्ना विंशति रित्युक्ता, लज्जायास्तु भिषग्वरैः । ।१०५ ।। रक्तपादी, शमीपत्रा, स्पृक्का, रवदिरपत्रिका, संकोचनी, समङ्गा नमस्कारी, प्रसारिणी, लज्जालु, सप्तपर्णी, खदिरी, गण्डमालिका, लज्जा, लज्जिका, स्पर्श लज्जा, अस्ररोधिनी, रक्तमूला, ताम्रमूला, स्वगुप्ता तथा अञ्जलिकारिका ये सब लज्जालु के बीस नाम हैं। (राज० नि०५/१०३ से १०५ पृ०१२४)
अन्य भाषाओं में नाम
हि० - लज्जावती, छुईमई, लजारू, लाजवती, लजउनी । बं० - लज्जावती लाजक । म० - लाजालू, लाजरी | गु० - रीसामणी । ता० - तोद्वाच्चुरंगी । ते० - मुणुगु दामरगु । ले० - Mimosa pudica linn (माइमोसा प्युडिका लिन०)। Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी)। (भाव. नि. पृ.४५७)
उत्पत्ति स्थान - यह भारतवर्ष के समस्त उष्ण प्रदेशों में न्यूनाधिक परिमाण में नैसर्गिक रूप में उत्पन्न होती है। यह विशेष कर काली और पानी से तर रहने वाली चिकनी मिट्टी की जगहों में मिलती है। इसके सूक्ष्म बीजों से सर्वत्र लग भी जाती है।
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हाथ उठा लिया जावे तो वह फिर अपनी असली दशा में आ जाती है। इसी वास्ते इसको लजालू, लज्जालु, छुईमुई कहते हैं । इस वनस्पति की खास यही परीक्षा
है ।
विवरण - यह गुडूच्यादि वर्ग और शिम्बीकुल एवं बब्बूलादि (कीकर) जाति की वनस्पति है। इसके छोटे-छोटे क्षुप लता के समान वर्षाकाल में होते हैं। यह दो प्रकार की होती है। एक पर मनुष्य की छाया पड़ने से और दूसरी मनुष्य का हाथ लगते ही मुरझा जाती
। जड़ लाल वर्ण की होती है, अतः रक्तपादी नाम है। स्पर्श करने से झुक जाती है अतः नमस्कारी कहा गया है। अक्सर ऊपर तक उसके डंठल का रंग लाल होता
है, मजीठ की तरह अतएव समङ्गा भी कहा गया है।
बउल
परीक्षा- यह बूटी पुरुष के हाथ लगने से मुरझाने
लगती है और पकड़ने से मुरझा जाती है। फिर इससे बउल ( बकुल) मौलसिरी
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यह चारों ओर फैलने वाला छोटा क्षुप है। ऊंचाई डेढ से तीन फीट। काण्ड और शाखायें नीचे झुकी हुई, कांटेदार और लम्बी, रोयें से आच्छादित, सारी लता तथा क्षुप की शाखायें पत्तों के किनारे ललाई लिये हुए होती हैं। मूल आधे से दो फुट तक गहराई में गया हुआ रक्ताभ सुगंधित, दृढतन्तुमय, त्वचा युक्त। पान स्पर्शसहिष्णु, २ से ४ इंच लम्बे, द्विपक्षाकार, ४ द्वितीयवृन्त युक्त । पत्रवृन्त १ से २ इंच लम्बा, रोयेंदार, विषमवर्ती आधार स्थान में स्थित । उपपान छोटा, रेखाकार, भालाकार, २ से ३ इंच लम्बा, लगभग वृन्तरहित । पत्रदल १२ से २० जोड़ी वृन्त रहित, चिमड़े (जो खिंचने या मोड़ने से नहीं टूटे) रेखाकार - लम्बे गोल, नोकदार, ऊपर चिकना नीचे रोयेंदार होते हैं। फूलगुलाबी लगभग आधा इंच चौड़ा, गोलाकार गुण्डी, इन पुष्पों में कतिपय नर और कुछ स्त्री पुष्प होते हैं। पुष्प बाह्यकोष घंटाकार और किंचित्, दांतेदार, अंतरकोष की पंखुड़ियां आधार स्थान की ओर संयुक्त (युग्म) अथवा निम्न तरफ तिहाई लगभग विभक्त गुलाबी (गुजरात और सौराष्ट्र और राजस्थान में पीली) । पुंकेसर ४ (सौराष्ट्र में १०) पुष्पदण्ड लगभग १ इंच लम्बा, कांटेदार शाखाओं पर पत्रकोण में से जोड़ रूप से निकले हुए । पुष्पपत्र एकाकी, रेखाकार, नोकदार । फली आधा से पौन इंच लम्बी, चिपटी, किंचित्, मुड़ी हुई । पुष्प फलकाल जुलाई से दिसम्बर तक। किसी-किसी स्थान पर वसन्त में भी फली मिलती है। प्रत्येक फली में ३ से ४ बीज होते हैं। वे बादामी रंग के और मूंग से कुछ छोटे होते हैं। स्वाद इसका तिक्त कषाय होता है। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ० १२४)
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भ०२२ / २ प ०१ / ३५/१
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