Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० ऋषभदेवजी--कुष्ठ रोगी महात्मा का उपचार
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जीवानन्द की बात सुन कर सभी मित्रों ने कहा--"हम दोनों वस्तुएँ लावेंगे।" वे बाजार में गये । एक वृद्ध सेठ के निकट जा कर उन्होंने दोनों वस्तुएँ माँगी । प्रत्येक वस्तु का मूल्य "लाख सोनैया" था। वृद्ध ने पूछा--" आप इन वस्तुओं का क्या उपयोग करेंगे ?" उन्होंने कहा--" एक तपस्वी मनिराज की औषधी में आवश्यकता है । सेठ ने कहा--" महानुभाव ! कृपा कर ये दोनों चीजें आप ले लें। मूल्य की आवश्यकता नहीं है। आप धन्य है कि युवावस्था में भी धर्म का सेवन करते हैं । आपके प्रताप से मुझे धर्म का लाभ मिला। इसलिए मैं आपका आभारी हूँ।" सेठ ने दोनों वस्तुएँ दे दी और परिणामों में वृद्धि होने पर दीक्षा ले कर मुक्ति प्राप्त की।
___ वह मित्र-मण्डली औषधी और सभी सामग्री ले कर मुनि के पास वन में गयी। मुनिराज वटवृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग कर रहे थे। मित्र-मण्डली ने तपस्वीराज को वन्दन किया और निवेदन किया कि--"हम आपके ध्यान में विघ्न कर के चिकित्सा करेंगे, अतएव क्षमा करें।" वे तत्काल की मरी हुई गाय का शव लाये और उसे एक ओर रख दिया। फिर उन्होंने लक्षपाक तेल से मुनिवर के शरीर के प्रत्येक अंग का इस प्रकार मर्दन किया कि जिससे वह तेल शरीर की प्रत्येक नस में व्याप्त हो गया । उस अति उष्ण वीर्य वाले तेल से मुनि मूच्छित हो गए। तेल के प्रभाव से व्याकुल हुए कीड़े, शरीर के भीतर से बाहर आ गये । कृमि के बाहर आने पर जीवानन्द ने रत्नकम्बल से शरीर को आच्छादित कर दिया। रत्नकम्बल की शीतलता पा कर, तेल की गर्मी से तप्त बने हुए कृमि, रत्नकम्बल में आ गये। फिर धीरे से रत्नकम्बल को ले कर उसके कीड़े गाय के कलेवर में छोड़ दिये। इसके बाद तपस्वीराज के शरीर पर गोशीर्षचन्दन का लेप किया, इससे मुनि को शान्ति मिली। इसके बाद फिर तेल का मर्दन कर के मांस के भीतर तक तेल पहुँचाया। उससे मांस के भीतर तक पहुँचे हुए कृमि बाहर आ गये । उन्हें भी पूर्ववत् रत्नकम्बल में ले कर गाय के कलेवर में छोड़ दिए । पुनः चन्दन का लेप कर के शान्ति पहुँचाई और पुनः तेल का मर्दन कर हड्डी तक पहुँचे हुए कृमि को बाहर निकाल कर पहले के समान रत्नकम्बल में ले कर गाय के मृत शरीर में छोड़े। चन्दन के विलेपन से तपस्वीराज को शांति मिली और वे नीरोग हो गए। इसके बाद मुनिवर से क्षमा याचना कर के मित्र-मण्डली अपने स्थान पर आई और मुनिवर विहार कर गये । कालान्तर में छहों मित्र संसार त्याग कर प्रवजित हो गए और बहुत वर्षों तक संयम और तप का सेवन कर के अनशनपूर्वक देह त्याग कर बारहवें देवलोक में इन्द्र के सामानिक देव हुए।
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