Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
२ सुनाशीर मन्त्री की लक्ष्मी नामक पत्नी से ‘सुबुद्धि' पुत्र । ३ सागरदत्त सार्थवाह की अभयमती स्त्री से 'पूणभद्र' और ४ धनश्रेष्ठि की शीलमती के उदर से 'गुणाकर' पुत्र । इनके अतिरिक्त श्रीमती का जीव भी देवलोक से च्यव कर उसी नगर में ईश्वरदत्त सेठ का 'केशव' नाम का पुत्र हुआ।
कुष्ठ रोगी महात्मा का उपचार
ये छहों बालक सुखपूर्वक बढ़ते हुए किशोरवय को प्राप्त हुए और परस्पर मित्र रूप से खेल-कूद में साथ रहने लगे। इनकी मैत्री एक शरीर की पाँच इन्द्रियाँ और मन के समान एकता युक्त थी। उनमें से जीवानन्द वैद्य, आयुर्वेद में निष्णात हुआ । वह अन्य सभी वैद्यों में विशेषज्ञ एवं सम्माननीय था। एक बार वह अपने अन्य मित्रों के साथ घर बैठा हुआ था, उस समय एक गुणाकर नाम के राजर्षि तपस्वी मनिराज भिक्षार्थ पधारे । उनका देह कृश हो गया। वे कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। उनके तन में कीड़े पड़ गये थे। उनका सारा शरीर कृमिकुष्ठ व्याधि से व्याप्त हो गया था । असह्य पीड़ा होते हुए भी वे
औषधोपचार का विचार ही नहीं करते थे और शान्त भाव से सहन करते हुए संयम का पालन कर रहे थे।
तपस्वी मुनिराज बेले के पारणे, आहार के लिए पधारे थे। उन्हें देख कर राजकुमार महीधर ने व्यंगपूर्वक कहा-"मित्र जीवानन्द ! तुम कुशल वैद्य हो । तुम्हारा
औषध-विज्ञान भी अद्वितीय है । किंतु तुम्हारे हृदय में दया नहीं है । तुम वेश्या के समान पैसे के बिना आँख उठा कर भी रोगी की ओर नहीं देखते । तुम्हें धर्म को नहीं भूलना चाहिए और अपनी योग्यता का उपयोग, परोपकार में भी करना चाहिए और ऐसे त्यागी तपस्वी संत की भक्तिपूर्वक चिकित्सा करनी चाहिये।".
जीवानन्द ने कहा--" मित्र ! आपने मुझे कर्तव्य का भान करा कर मेरा उपकार किया। मैं इन महा मुनि की चिकित्सा करना चाहता हूँ। किंतु अभी मेरे पास इनकी
औषधी की सामग्री नहीं है। औषधी में काम आने वाला 'लक्षपाक तेल' तो मेरे पास है, किन्त गोशीषचन्दन' और 'रत्नकम्बल' नहीं है। यदि आप ये दोनों वस्तुएँ ला दें, तो इनका उपचार हो सकता है।"
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