Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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. तीर्थंकर चरित्र
शंकित हुई । उसने राजकुमार से चित्र का पूरा परिचय बताने का कहा । दुर्दान्त ने कहा--" यह मेरु पर्वत है, यह पुंडरीकिनी नगरी है, यह ललितांग देव है।"
पंडिता--" इन मुनि का नाम क्या है ?'' दुर्दान्त--नाम तो मैं भूल गया ।
पंडिता--" मन्त्रियों के मध्य बैठे हुए राजा का नाम क्या है ?" दुर्दान्त--" मैं नाम नहीं जानता।"
पंडिता-" यह तपस्विनी कौन है ?' दुर्दान्त- “इसे भी मैं नहीं जानता।" पंडिता को विश्वास हो गया कि यह मायावी है। उसने कहा
"कुमार ! यदि तू स्वयं ललितांग कुमार है, तो नन्दी ग्राम में जा। वहां तेरी प्रिया है। वह लंगड़ी है। उसे जाति-स्मरण हुआ है। उसी का यह चित्रपट है और उसने अपने पूर्वभव के पति को खोजने के लिए दिया है । चल, मैं तुझे उसके पास ले चलूं। वह बिचारी बहुत दुःखी है। मैं उसकी दयाजनक स्थिति देख कर ही परोपकार की भावना से यह पट ले कर आई । अब तू जल्दी चल ।”
कुमार यह सुन कर विस्मित हुआ और नीचा मुँह कर के चलता बना ।
कुछ समय बाद वहाँ लोहार्गलपुर से राजकुमार वज्रजंघ आया । वह चित्र देख कर मूच्छित हो गया। उपचार करने पर वह सावधान हुआ। उसने कहा-" यह चित्रपट तो मेरा पूर्वभव बता रहा है। इसमें मेरी प्रिया का भी उल्लेख है। यह देखो-ईशानकल्प रहा । यह श्रीप्रभः विमान । यह मैं ललितांग देव । यह मेरी प्रिया स्वयंप्रभा देवी । यह नन्दी ग्राम वाले महादरिद्री की पुत्री निर्नामिका । यह गंधारतिलक पर्वत । ये महामुनि यगंधरजी । यहाँ निर्नामिका अनशन कर रही है और इसके पास मैं इसे आकर्षित करने के लिए देवलोक से आ कर खड़ा हूँ । इसके बाद यह दृश्य मेरे जिनवन्दन का है और इसके बाद लौटते हुए मेरी मृत्यु हो गई । मेरा विश्वास है कि मेरी वियोगिनी प्रिया स्वयंप्रभा भी यहीं-कहीं होगी। उसी ने जातिस्मरण से पूर्वभव जान कर इस चित्रपट को तय्यार किया है।"
राजकुमार वज्रजंघ की बात पर पण्डिता को विश्वास हो गया । वह राजकुमारी के पास आई और सारी घटना सुनाई । श्रीमती के हर्ष का पार नहीं रहा। पण्डिता ने ये समाचार राजा को सुनाया और राजा ने वज्रजंघ कुमार के साथ श्रीमती के लग्न कर दिये । वे नव-दम्पत्ति लोहार्गलपुर आये । सुवर्णजंघ राजा ने राज्य का भार यवराज वज्रजंघ को दे कर निर्ग्रन्थ-प्रवज्या धारण कर ली। उधर चक्रवर्ती महाराज वज्रसेन भी अपने पत्र पुष्करपाल को राज्य दे कर दीक्षित हुए और तीर्थङ्कर पद पाये।
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