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दूसरा परिच्छेद विश्वास है, तो अब तेरा ब्याह मैं ऐसे वर से करूँगा, जिसे प्रारब्ध ही यहाँ ले आया होगा। बस, फिर तू अपने प्रारब्ध बल से कितना सुख भोगती है, सो मैं देख लूँगा।
राजा और मैनासुन्दरी की बात-चीत का यह दुष्परिणाम देखकर लोगों को बड़ा खेद हुआ। अकारण ही राज-सभा में राजा का अपमान करने के कारण अनेक दरबारी मैना की निन्दा करने लगे। कितनों ही ने उसकी विद्या को धिक्कारा
और कितनों ही ने उसके अध्यापक की निन्दा की। नगरनिवासी भी मैना की बुद्धि पर हँस-हँस कर कहने लगे कि बलिहारी है, इस बुद्धिकी, कि इसने राजा की प्रसन्नता को अप्रसन्नता में परिणत कर, अपने लिये विपत्ति बटोर ली। मिथ्यात्वियों को भी जैन मत की खिल्ली उड़ाने का अवसर मिल गया। वे कहने लगे-जैनों की सभी बातें उलटी होती हैं। व्यवहार-बुद्धि तो उन्हें होती ही नहीं। प्रत्येक बात में उद्दण्डता ही दिखाई देती है। विवेक और नम्रता किसे कहते हैं, यह शायद वे जानते ही नहीं।
मैनासुन्दरी की बातों पर चारों ओर इसी तरह की आलोचनायें हो रही थीं; परन्तु उसे रंचमात्र भी इसका खेद न था। उसे अपने प्रारब्ध पर अटल विश्वास था। वह जिस प्रसन्नता के साथ राज-सभा में आयी थी, उसी प्रसन्नता के साथ वहाँ से विदा हुई। मानों कुछ हुआ ही नहीं। परन्तु राजा
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