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श्रीपाल - चरित्र
मैं आज से एक बार भोजन करूंगी, जमीन पर शयन करूँगी; श्रृंगार त्याग दूँगी और सादगी से रहूँगी। जब सिद्धचक्र के प्रताप से आपके पुनः दर्शन होंगे तब श्रंगार धारण कर अपने को धन्य समझँगी।”
इस प्रकार सबसे बिदा ग्रहण कर, श्रीपालकुमार केवल अपनी ढाल तलवार लेकर प्रातःकाल के समय चन्द्र- स्वर और शुभ मुहूर्त में घर से निकल पड़े। अनेक नगरों को देखते, भ्रमण का आनन्द प्राप्त करते हुए कुछ दिनों के बाद वे एक पर्वत के शिखर पर जा पहुँचे। वहाँ सघन वृक्षों की घनी घटामें चम्पक-वृक्ष के नीच एक विद्या साधक दोनों हाथ ऊपर को उठाये जप कर रहा था । कुमार को देखते ही जप पूरा कर पहले उसने प्रणाम किया । फिर वह कहने लगा :“हे सत्पुरुष ! आप बहुत ही अच्छे अवसर पर यहाँ आ पहुँचे हैं। निःसंदेह आपसे मुझे अपने कार्य में बड़ी सहायता मिलेगी।”
श्रीपाल ने कहा :- "मेरे योग्य जो कार्य सेवा हो, सहर्ष सूचित करें । परोपकार के लिये अनेक महापुरुषों ने अपना राज्य, धन और प्राण तक दे दिये हैं । "
साधक ने कहा :- “हे कुमार ! गुरुदेव ने कृपाकर मुझे एक विद्या प्रदान की थी। मैंने उसे सिद्ध करने के लिये बहुत चेष्टा की; पर वह सिद्ध नहीं होती । इसकी साधना के लिये एक उत्तर - साधक की आवश्यकता है। बिना उत्तर साधक के चित्त स्थिर नहीं होता और बिना
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