________________
श्रीपाल - चरित्र
१९७
निरन्तर जो अप्रमत्त दशा में रहते हैं, धर्मोपदेश देने में सावधानी रखते हैं, चार प्रकार की विकथाओं से दूर रहते हैं, पच्चीस कषायों को सर्वथा त्याग कर देते हैं, जो क्लेश रहित, मलीन परिणाम रहित और माया प्रकट रहित हैं ऐसे आचार्य महाराज को मैं बारंबार नमस्कर करता
,
|
जो गच्छ में मुनि आदि को सारणा (क्रिया अनुष्ठानादि करने में कोई भूल होती हो तो उसे याद दिलाना) वारणा, (अशुद्ध क्रिया या अयोग्य भाषण करे तो उसे वारण करना) चोयणा (धर्म- क्रिया में और ज्ञानाभ्यास में मुनिओं को प्रेरित करना) पडिचोयणा, (किसी मुनि को ज्ञान - क्रियादि में प्रमाद करते देख बारंबार प्रेरित करना) प्रभृति द्वारा मुनियों को धर्मकार्य में लगाये रहते हैं, उत्तरोत्तर पाटको धारण करते हैं और जो गच्छ के आधार स्तम्भरूप हैं, ऐसे आचार्य महाराज पर मेरा आन्तरिक प्रेम है।
श्रीजिनेश्वररूपी सूर्य और सामान्य केवली रूपी चन्द्र अस्त होने पर भी अज्ञान - अन्धकार को टालने के लिये जो दीपक के समान हैं, तीनों भवन के पदार्थों का
,
स्वरूप प्रकट करने में जो परम चतुर हैं - समर्थ हैं ऐसे आचार्य चिरंजीवी अर्थात् दीर्घायुषी हों और उनके द्वारा भव्यजीवों का अपिरमित उपकार हो ।
जो देश, कुल, जाति और रूपादिक गुणों से सम्पन्न हैं, जो सूत्रार्थ के ज्ञाता हैं, परोपकार परायण होने के कारण तत्वोपदेश के दाता हैं, पाप भार से पीड़ित होने के कारण संसार रूपी गहरे अन्धकूप में गिरनेवाले प्राणियों को जो बचाते हैं। माता-पिता और बन्धुओं से भी जो अधिक हित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org