Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 247
________________ अठारहवाँ परिच्छेद औषधि का काम करे । (४) मलौषधि - शरीर के मलमात्र औषधि के काम करे । (५) सर्वोषधि-रोम और नखादिक से सब तरह के रोग नष्ट हो सकें। (६) संभिन्न श्रोत - बाजे आदि सुनने की शक्ति सब इन्द्रियों को एक साथ ही प्राप्त होना (७) अवधिज्ञान - अवधिज्ञान की प्राप्ति होना (८) ऋजुमति-मनः पर्यव ज्ञान का होना । (९) विपुलमति- मनः पर्यव ज्ञान का हेना (१०) चारण- जंघाचारण और विद्याचारणपने की प्राप्ति होना (११) आसिविष - दूसरों का विष उतारने की शक्ति आ जाना (१२) केवलज्ञानकेवलज्ञान की प्राप्ति (१३) गणधर - गणधरत्व की प्राप्ति (१४) श्रुतज्ञान - पूर्वधरपने की प्राप्ति (१५) तीर्थंकरसमवसरण की रचना कर तीर्थंकर के समान महिमा दिखलाना (१६) चक्रवर्ती - चक्रवर्ती के समान राजऋद्धि दिखलाना (१७) बलदेव - बलदेवकी ऋद्धि प्राप्त होना (१८) वासुदेव की ऋद्धि प्राप्त होना (१९) क्षीराश्रव, मध्वाश्रव किंवा घृताश्रव - बातों में दूध और मिश्री से भी अधिक मधुरता होना (२०) कोष्टक - अन्तः करण में समस्त (भाव) ऋद्धियों का परिपूर्ण होना (२१) पदानुसारिणी- एक पद के सहारे अनेक पदों को जानने की शक्ति होना (२२) बीजबोध - वस्तु का यथार्थ रूप जानने की शक्ति (२३) तेजोलेश्या - तेजोलेश्याका प्राप्त होना (२४) शीतलेश्या - २०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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