Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 245
________________ २०६ अठार हवाँ परिच्छेद यति-अवस्था में आ-आकर चरणों में शिर झुकाते हैं। ऐसे प्रत्यक्ष फल देनेवाले चारित्र को मैं वन्दन करता हूँ। जिस चारित्र के बारह मास के पर्याय से अनुत्तर विमान के सुख को भी भुलानेवाले उत्तम सुखकी (उत्तम होने का कारण यह है कि अच्छे से अच्छा अनुत्तरविमान का सुख भी पौद्गलिक और नाशवन्त होता है; किन्तु बारह मास के शुद्ध चारित्र से प्राप्त होने वाला समाधि सुख अपौद्गलिक- आत्मिक होता है।) प्राप्ति होती है, साथ ही जिस चारित्र के प्रभाव से उज्ज्वल मोक्ष-सुख प्राप्त किया जा सकता है, उस चारित्र को मैं नमस्कार करता हूं। ज्ञान और दर्शन गुण परस्पर सहायक हैं। ज्ञान से श्रद्धा गुण प्रकट होता है और श्रद्धा रूप दर्शन गुण से अज्ञान ज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है; किन्तु इन दोनों का फल विरति चारित्र है। ज्ञान दर्शन की प्राप्ति से यदि विरति गुण प्राप्त किया जा सके, तो उसे सफल समझना चाहिये। अन्यथा वह वन्ध्य-निष्फल है। चारित्र के साथ रहने पर ही वह पूर्ण फलदायी होता है, इसलिये चारित्र ही सर्वश्रेष्ठ है। शास्त्रों में चारित्र के सामायिक आदि पाँच भेद बतलाये गये हैं। उसी चारित्र को अरिहन्तादिक ने स्वीकार किया है, उसकी आराधना की है, उसे सम्यक् रीत्या प्ररूपित किया है, और अनेक भव्य जीवों को दिया। चारित्र के अनन्त गुण होने पर भी शास्त्रकारों ने सत्रह और दश प्रकार से उसका वर्णन किया है। पाँच समिति, तीन गुप्ति, क्षमादिक गुणों का सेवन, मैत्री प्रमुख भावना चतुष्टयों का चिन्तन, और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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