Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 244
________________ २०५ श्रीपाल-चरित्र है। दीपक की भाँति अज्ञानान्धकार को दूर करने वाला है और इसके उपकारों को देखते हुए इसे सूर्य, चन्द्र और मेघ की भी उपमा दी जा सकती है। ऐसे सर्वोत्तम ज्ञान की प्राप्ति के लिये भव्य जीवों को ज्ञान का ही पठन-पाठन, श्रवण मनन, पूजा अर्चना और आलेखन करना चाहिये। जिससे ज्ञानावरणीय कर्म नष्ट हो जायें और हाथ में रखे हुए आँवले की भाँति तीनों लोक के भाव जाने जा सकें। साथ ही जिस सम्यग् ज्ञान से इस संसार में भी मान पूजा और प्रशंसा की प्राप्ति होती है, उस ज्ञान का आदर पूर्वक सदा ध्यान करना चाहिये। इस तरह सम्यग्ज्ञान की स्तुति करने के बाद राजा श्रीपाल ने चारित्र पद की स्तुति करना आरम्भ किया। चारित्र पद वर्णन चारित्र के दो भेद हैं- (१) सर्वविरति और (२) देशविरति। सर्वविरति चारित्र यतियों में और देशविरति चारित्र गृहस्थों (श्रावकों) में पाया जाता है। जिस चारित्र के कारण इस संसार में सर्वत्र विजय प्राप्त होता है, उस चारित्र को मैं त्रिविध नमस्कार करता हूँ। छह खण्डकी ऋद्धि के स्वामी चक्रवर्ती भी तृण की भाँति अपनी समस्त ऋद्धियों का त्याग कर अक्षय सुख के कारणभूत जिस चारित्र को स्वीकार करते हैं, उस चारित्र ने मेरे हृदय पर भी अधिकार कर लिया है। चारित्र को स्वीकार करनेवाला एक दरिद्र भी इन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा पूजित होता है। सांसारिक अवस्था में प्रार्थना करने पर भी जो लोग दृष्टि उठाकर नहीं देखते, वही लोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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