Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 243
________________ २०४ अठार हवाँ परिच्छेद भव्यात्मा को भक्ष्या-भक्ष्य का स्वरूप, पेयापेय का विचार और कृत्याकृत्यका विवेक नहीं हो सकता। निरवद्य और दूषण रहित आहार भक्ष्य है। अभक्ष्य, अनन्तकाय, सावद्य और दूषित आहार अभक्ष्य हैं। दूध, पान, छाछ-मट्ठा आदि पदार्थ पीने योग्य हैं। ताड़ी, मदिरा आदि मादक पदार्थ त्याज्य है। यह सब बातें सम्यग् ज्ञान से ही जानी जा सकती हैं। इसीलिये यह ज्ञान सबका आधार भूत हैं। “प्रथम ज्ञान और फिर दया” यह सिद्धान्त का कथन है; क्योंकि ज्ञान के बिना जीव और अजीव के यथार्थ स्वरूप का बोध नहीं होता और ऐसी अवस्था में दयाधर्म का पालन होना कठिन हो पड़ता है। इसलिये यह अपूर्व ज्ञान अतीव वन्दनीय है। उसकी निन्दा कभी न करनी चाहिये ; क्योंकि मोक्ष-सुख का रसास्वादन ज्ञानी ही कर पाते हैं, अज्ञानी नहीं। सिद्धान्तोक्त सभी क्रियायों का मूल श्रद्धा है और श्रद्धा का मूल ज्ञान है ; क्योंकि ज्ञान के बिना वास्तविक श्रद्धा नहीं होती। यदि होती है तो वह स्थायी नहीं रहती। इसलिये सब गुणों के आधारभूत ज्ञान को सदैव धारण करना चाहिये। यही ज्ञान सदा सर्वदा सबके लिये वन्दनीय और ग्रहण करने योग्य है। ___ मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यव और केवल, इन पांच ज्ञानों में, लोकालोक प्रकाशक उत्कृष्ट ज्ञान तो केवलज्ञान ही है, किन्तु उसके द्वारा जाने हुये भावों को प्रगट करनेवाला सम्यक ज्ञान है। यही ज्ञान, स्व और परके यथार्थ रूप को प्रकट करता है, समस्त संसार के जीवों का कल्याण करनेवाला ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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