________________
२०२
दर्शन पदका वर्णन
गुरु
शुद्ध देव अर्थात् अठारह दोष रहित अरिहन्त, शुद्ध यानी पंच महाव्रत का पालन करनेवाले यति और शुद्ध धर्म अर्थात् दयायुक्त प्रधान धर्म | इन तीनों तत्त्व की भली प्रकार परीक्षा कर उन पर दृढ़ श्रद्धा करना इसी को सम्यग् दर्शन कहते है ।
अठारहवाँ परिच्छंद
कर्म रूप जो मल अर्थात् अनन्तानुबन्धी चार कषाय और तीन प्रकार की दर्शन मोहनी - इस सात प्रकृतियों के उपशम से, क्षयोपशम से किंवा क्षय होने से उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक नामक समकित की प्राप्ति होती है। ऐसे समकित की प्राप्ति होने से ही जैनधर्म पर दृढ़ अनुराग होता है, इसलिये मैं शुद्ध समकित को नमस्कार करता हूं।
उपशम समकित, भव चक्रवाल में यानि जन्म भर में अधिक से अधिक पाँच बार प्राप्त होता है। वह एक बार तो अनादि मिथ्यात्वी अवस्था में प्राप्त होता है और चार बार उपशम श्रेणी के चिन्तवन से प्राप्त होता है। क्षयोपशम समकित असंख्यात बार प्राप्त होता है अर्थात् अनेक बार आता और जाता है, क्षायिक समकित केवल एक ही बार प्राप्त होता है, क्योंकि वह आने के बाद फिर कभी नहीं जाता मोक्षपर्यन्त अविच्छिन्न रहता है। इस तरह के तीनों प्रकार की समकित को मैं नमस्कार करता हूं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org