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श्रीपाल-चरित्र ऐसे यतिराज को सर्वदा नमस्कार करना परम कर्तव्य है ; किन्तु इसके साथ ही देशकाल की दृष्टि से भी विचार करना उचित है ; क्योंकि महाविदेह क्षेत्र में विचरण करनेवाले यति जैसे होते हैं, वैसे यतियों का दर्शन यहाँ दुर्लभ ही समझना चाहिये। इसी प्रकार तीसरे या चौथे आरे के समान आज पाँचवें आरे में वैसे यतियों का मिलना असम्भव है। देशकालानुसार कामिनी और कञ्चन से दूर रहनेवाले संयमी यति ही इस समय पूजनीय है।
__ आर्त्त और रौद्र ध्यान त्यागकर धर्म और शुक्ल ध्यान का ध्यान करनेवाले, ग्रहण और आसेवना रूपी दो प्रकार की शिक्षाओं का अध्ययन करनेवाले, तीन गुप्तिओं से गुप्त, तीन शल्यों से रहित, जिनाज्ञाका पालन करने वाले, चार कषाय का त्याग करनेवाले, दानादि चार प्रकार के धर्म-का उपदेश देने वाले, पाँच प्रमादों के परिहारी, पाँच समितियों का पालन करने वाले, हास्य प्रभृति षट्कसे मुक्त, छह व्रतों को धारण करनेवाले, सात भयों को जीतने वाले, आठ मदों को टालनेवाले, अप्रमत्त . भाव का सेवन करनेवाले, दस प्रकार के यति धर्म का पालन करनेवाले, यति की बारह पडिमाओं का वहन करनेवाले और सर्वत्र विचरण करनेवाले यति-मुनिराज की मैं त्रिविध वन्दना करता हूँ। इस प्रकार साधु पद की स्तुति करने के पश्चात् राजा श्रीपाल ने दर्शन पद का स्तवन करना आरम्भ किया।
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