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श्रीपाल - चरित्र
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जिस प्रकार किसी राज्य के युवराज निरन्तर अपने राज-काज की चिन्ता किया करते हैं उसी प्रकार जो निरन्तर गच्छ स्थित मुनि आदि के हित की चिन्ता किया करते हैं ऐसे उपाध्याय को मैं सदा सर्वदा नमस्कार करता हूँ, क्योंकि उन्हें नमस्कार करने से सब प्रकार के भवभय और शोक नष्ट हो जाते हैं ।
बावन अक्षर रूप, बावना चन्दन के रस के समान अपने वचनों द्वारा जो भव्य जीवों के अहित रूप ताप का सर्वथा नाश करनेवाले हैं जो जैन शासन को उज्ज्वल करनेवाले हैं ऐसे उपाध्याय महाराज को मैं त्रिविध नमस्कार करता हूँ।
मोहरूप सर्प के काटने से जिनका ज्ञान-प्राण नष्ट हो गया है ऐसे जीवों को जो जांगुली - मंत्र वादी की भाँति अपूर्व ज्ञान सुना कर नया चैतन्य प्रदान करते हैं, अज्ञान रूपी व्याधि से पीड़ित प्राणियों को जो धन्वन्तरी वैद्य की भाँति श्रुतज्ञान रूप उत्तम रसायन देकर व्याधिमुक्ति सज्ञान करते हैं, गुणरूपी वन को विनाश करनेवाले, मद रूपी गज को दमन करने के लिये जो अंकुश समान ज्ञानदान करते हैं ऐसे उपाध्याय का मैं निरन्तर ध्यान करता हूँ । अज्ञान द्वारा जो लोग अन्ध हो जाते हैं उनके नेत्रों को ज्ञानरूपी शस्त्रक्रिया द्वारा जो खोल दिया करते हैं, सब तरह के दानों को अस्थायी समझकर अन्ततक साथ देनेवाले ज्ञान का ही जो दान करते हैं। ऐसे उपाध्याय महाराज को मैं शुद्ध अन्तः करण से सादर नमस्कार करता । इस प्रकार उपाध्याय पद की स्तुति करने के पश्चात् राजा श्रीपाल मुनिपद का चिन्तवन करने लगे ।
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