Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 242
________________ श्रीपाल-चरित्र २०३ जिस समकित गुण के बिना ज्ञान अप्रमाण हैअज्ञान रूप है, चारित्र रूपी वृक्ष फलीभूत नहीं होता अर्थात् उसके वास्तविक फलकी प्राप्ति नहीं होती और जिसके बिना निर्वाण सुखकी प्राप्ति होती नहीं, ऐसे प्रबल समकित गुण को मैं बारंबार वन्दन करता हूँ। सदहणा, लिंग, लक्षण, भूषण प्रभृति ६७ बोल-वचनों से जिसकी सम्पूर्ण व्याख्या हो सकती है जिसका स्वरूप समझाया जा सकता है ऐसे शिवमार्ग की अनुकूलता कर देनेवाले समकितदर्शन को मैं निरन्तर नमस्कार करता हूं। आयु को छोड़कर सातों कर्मों की स्थिति जब एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम के अन्दर हुई हो और अर्ध पुद्गल परावर्तन से भी संसार कम रहा हो, तब यथाप्रवृत्ति, अपूर्व और अनिवृत्ति यह तीन करण करने से राग-द्वेष की निबिड़ ग्रन्थी का भेदन होता है और तभी जीव समकित को प्राप्त करता है। यही समकित, धर्मरूपी वृक्ष का मूल है, धर्मपुरी का द्वार है, धर्म प्रसाद किले की नींव है, समस्त धमों का आधार है, उपशम रस का भाजन है, और गुण रूपी रत्नों का भण्डार रूप है। अतएव इसे मैं विविध नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार दर्शन पद की स्तुति करने के बाद राजा श्रीपाल ने ज्ञान पद की स्तवना करना आरम्भ किया। ज्ञान पदका वर्णन सर्वज्ञ प्रणीत आगममें बतलाये हुए यथा स्थिति तत्वों के शुद्ध बोध को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान के बिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258