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सोलहवाँ परिच्छेद
सकेगा। यह सुनते ही राजा ने उक्त प्रायश्चित करना स्वीकार कर लिया। उसी समय मुनि राज से इसकी विधि आदि की बातें पूछ लीं। यह सब बताकर मुनिराज वहाँ से चल दिये। इधर राजा और रानी दोनों ने सिद्धचक्र की आराधना आरम्भ की। अन्त में उसका उत्सव मनाया, उस समय रानी की आठ सखियों और राजा के सात सौ सेवक - साथियों ने उसका अनुमोदन किया और उसमें भाग लिया । यह कार्य पूरा होने पर राजा और रानी अपने को कृतकृत्य समझने लगे ।
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एक समय की बात है कि उसी श्रीकान्त राजा ने अपने सात सौ सेवकों के साथ अपने पड़ोस के सिंह नामक राजा के नगर पर आक्रमण किया। उसने नगरी का कुछ भाग लूट लिया और गायों का एक झुण्ड अधिकृत कर अपने नगर की ओर लौटा। जब सिंह राजा ने यह समाचार सुना, तब उसे बड़ा ही क्रोध आया और उसने अपनी सेना लेकर इन लोगों का पीछा किया। मार्ग में दोनों दलों की भेट हो गयी। सिंह के सैनिक सिंह की भाँति श्रीकान्त के दलपर टूट पड़े और देखते ही देखते उन सात सौ सैनिकों को स्वर्ग का रास्ता दिखा दिया । राजा श्रीकान्त को, किसी तरह अपने प्राण लेकर भागना पड़ा । सिंह राजा ने उसकी लूटी हुई समस्त सम्पत्ति और गायों पर अपना अधिकार कर लिया ।
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