Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 228
________________ १/ ९ श्रीपाल-चरित्र उस समय से जिन्हें चौथा मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। जो छद्मावस्था में प्रायः मौन रह कर, घातिक कर्म का अन्त लाने के लिये, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और बाह्याभ्यन्तर तप द्वारा, प्रबल यत्न से उसका सर्वथा क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, बाद को तीर्थंकर नाम कर्म का उदय होने से भव्य; सुलभबोधी और परितप्त संसारी जीवों को उपदेश द्वारा संसार-सागर के उस पार पहुंचाते हैं और स्वयं जीवन के अन्तिम भाग में, निर्मल ध्यान से शैलेशी करण द्वारा अयोगी अवस्था प्राप्त कर सिद्धिस्थान को प्राप्त करते हैं, ऐसे वीतराग परमात्मा को मैं शुद्ध अन्तःकरण से बारंबार नमस्कार करता हूँ। अरिहन्त देवको सब प्रकार की उपमायें दी जा सकती है; किन्तु शास्त्रकारों ने विशेष रूप से महागोप, महा माहण, निर्यामक और सार्थवाह की ही उपमा दी है। जिस प्रकार एक चरवाहा अपने आश्रित गायों की सब प्रकार से रक्षा कर उन्हें उनके नियत स्थान पर पहुँचाता है, उसी तरह भगवन्त भी भव्यजीव रूपी गायों के समुदाय को जन्म और जरा-मरण के भय से बचाकर मोक्ष रूपी उनके नियत स्थान में निर्विघ्न पहुँचाते हैं, इसलिये उनको महागोप की उपमा दी जाती है। भगवान के उपदेश से अनेक मनुष्य मुनि-व्रत ग्रहण कर छह काय के जीवों की रक्षा करते हैं, तीनों जगत में वे अमारीपडह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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