Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 229
________________ १९० अठार हवाँ परिच्छद बजवाते हैं और चारों ओर मा हण (मत मारो) शब्द घोषित कराते हैं, इसलिये परमात्मा को महामाहण की उपमा दी गयी है। निर्यामक कहते हैं, नौकाके प्रधान नाविक मल्लाह (कप्तान) को। जिस प्रकार नाविक नावपर बैठने वाले मुसाफिरों की समुद्र के उपद्रवों से रक्षा कर उन्हें नियत स्थान पर पहुँचाता है, उसी प्रकार अरिहन्त भगवान भी भवसागर में पड़े हुए भव्य जीवों को उनकी भवस्थिति परिपक्व होने पर, उससे उद्धार कर शुद्ध मार्ग में पहुंचाते हैं और चारित्र रूपी नोका में बैठाकर घातिक कर्मरूपी उपद्रव का सर्वथा क्षयकर उन्हें सिद्ध स्थान में पहुँचाते हैं। इसी से उन्हें अपूर्व निर्यामक की उपमा दी गयी है। सार्थवाह अर्थात् मार्गरक्षक जिस प्रकार अपने साथ के व्यापारियों के माल की रक्षा कर, उन्हें विकट रास्तों को पार करा, निर्दिष्ट नगर में पहँचा देता है, उसी प्रकार तीर्थंकर भी भवचक्र में भटकते हुए भव्यजीवों को अपने सदुपदेश द्वारा सुमार्ग दिखाकर मोक्षरूपी नगर में पहुँचा देते हैं। अतएव उन्हें सार्थवाह की उपमा दी गयी है। यह चारों उपमायें जिनके सम्बन्ध में पूर्णरूप से घटित होती हैं, उन अरिहन्त देव को मैं त्रिविध नमस्कार करता हूँ। साथ ही जो परमात्मा उपरोक्त आठ प्रातिहार्यों से सदा अलंकृत रहते हैं, जिनकी वाणी ३५ गुणों से युक्त रहती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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