Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 232
________________ १९३ श्रीपाल-चरित्र विशेष बुद्धि उत्पन्न हो, (३२) पद के अर्थ अनेक प्रकार से बतलायें, (३३) वाणी साहसिकता-पूर्वक हो, (३४) पुनरुक्ति दोष न हो, (३५) ऐसी बातें हों, जिससे सुननेवाले को जरा भी खेद या श्रम न हो। इस तरह की अपूर्व वाणी बोलने वाले संसार पर उपकार करनेवाले परम ऐश्वर्यवान्, सर्वगुण सम्पन्न, सर्वदोष रहित, पुण्य प्रकृति के बलसे, जन्म से ही देव इन्द्रादि के द्वारा पूजित होने वाले अरिहन्त भगवान को बारम्बार नमस्कार कर और उनके रूप को हृदय में धारण कर राजा श्रीपाल ने सिद्ध पद की स्तुति आरम्भ की। सिद्ध पदका वर्णन जिन सिद्ध परमात्मा ने चौदहवें गुणठाणे के अन्त में केवल एक समय की अवधि में प्रदेशान्तर को स्पर्श किये बिना ही मानव शरीर की त्रिभाक् न्यून अवगाहना-ऊँचायी द्वारा सिद्धि स्थान को प्राप्त किया है, उन सिद्ध परमात्मा को मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ। पूर्व-प्रयोग, गति-परिमाण, बन्धन-छद और असंगक्रिया द्वारा, जो एक समय में सात राज पर्यन्त गति कर समश्रेणी में उत्पन्न हुए हैं, उन सिद्ध परमात्मा को मैं पुनः पुनः वन्दन करता हूँ। यहाँ, हमारे पाठकों को यह शंका हो सकती है, कि सर्व कर्म रहित होने पर भी जीव किस निमित्त को प्राप्त कर यहाँ से सिद्धिशिला तक जाता है? यह शंका स्वाभाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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