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अठार हवाँ परिच्छेद
ऐसे श्री अरिहन्त भगवान को नमस्कार कर मैं अपने अनेक भव संचित पापों को दूर करता हूँ। ..
पाठकों को यहाँ यह बतला देना आवश्यक है, कि तीर्थंकर के अतिशयों की संख्या ३४ है। इनमें से चार अतिशय तो उन्हें जन्म से ही होते हैं। ११ अतिशय घाती कर्म के क्षय से प्रभु को जब केवल ज्ञान उत्पन्न होता है, तब उसके साथ उत्पन्न होते हैं और १९ अतिशय उस समय देवकृत प्रकट होते हैं। जन्म से उत्पन्न होने वाले ४ अतिशय यह हैं :
(१) भगवन का शरीर मल रहित, रोग-रहित, सुगन्धियुक्त और अद्भुत रूपवान होता है। (२) शरीर का रुधिर और माँस गौ-दुग्ध की भाँति उज्ज्वल और दुर्गन्ध-रहित होता है। (३) आहार और निहार अदृश्य होते हैं। (४) श्वासोच्छवास में कमल के पुष्प जैसी सुगन्ध होती है।
घाति कर्म के क्षय से उत्पन्न होनेवाले ११ अतिशय यह हैं – (१) एक योजन जितने समवसरण में तीनों भवन के देवता, मनुष्य और तिर्यञ्च समा सकते हैं। (२) भगवान की बातें देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सभी अपनी अपनी भाषा में समझ सकते हैं। (३) भगवान जहाँ विचरण करते हैं, वहाँ आस-पास की २५ योजन की सीमा में पुराने रोग नष्ट हो जाते हैं और नये रोग नहीं
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