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सत्रहवाँ परिच्छेद मुनि पद की आराधना के निमित्त, विनय-पूर्वक मुनि की वन्दना, वैयावच्च, रहने के लिये उपाश्रय, एवं वस्त्र-पात्र आदि देकर मुनि पद का आराधन किया।
दर्शन पद के आराधन में, उन्होंने अनेक तीर्थों की भाव-पूर्वक यात्रा की। हर एक तीर्थों में सब प्रकार की पूजायें करवायीं। संघ पूजा-स्वामी वात्सल्यादि किये। रथ-यात्रायें निकलवायीं और दृढ़ चित्त से शासन की उन्नति के अनेक कार्य किये।
ज्ञान पद का आराधन करते समय, उन्होंने सिद्धान्तादि आगम-शास्त्र लिखवाये। अनन्तर वासक्षेप से उनकी पूजा कर फल-नैवेद्य चढ़ाया। ज्ञान के अनेक उपकरणों का संचय किया
और ज्ञान का अध्ययन करते-कराते उस पद की आराधना की। .. चारित्र पद की आराधना के निमित्त, उन्होंने ग्रहण किये हुए व्रत-नियमों का दृढ़ता-पूर्वक पालन किया। यथा-शक्ति बारह व्रतों को अंगीकार किया। निरन्तर चारित्र-धर्म की इच्छा की। विरतिवान श्रावक-श्राविकाओं की विनय पूर्वक भक्ति की। यति-मुनिराज की भी द्रव्य और भाव से श्रद्धापूर्वक भक्ति कर यति धर्म के अनुरागी बने।
तप पद के आराधन के निमित्त उन्होंने लोक और परलोक विषयक, किसी प्रकार के सुख की इच्छा किये बिना, सब प्रकार से अप्रतिबद्धता पूर्वक छः बाह्य और
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