Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 183
________________ १४६ पन्द्रहवाँ परिच्छेद अवस्था देखकर उसकी मुश्कें कस लीं। जब यह संवाद फैल गया तो चारों ओर श्रीपाल की जय-जयकार होने लगा । उसी समय सैनिक लोग अजीतसेन को बाँध कर श्रीपाल के पास ले आये। उन्होंने देखते ही उनके बन्धन छुड़ा दिये । पश्चात् समुचित आसनपर उन्हें बैठा कर कहाः— “पूज्य काकाजी ! आप अपने मन में लेश मात्र भी खेद न करें। आप आनन्द- पूर्वक राज कीजिये। मुझे राज्य की आवश्यकता नहीं है । " श्रीपाल कुमार के इन वचनों को श्रवण कर राजा अजीतसेन के विचारों में बड़ा ही अन्तर आ गया। वे अपने मन में सोच रहे थे, कि मैंने दूत की बात न मानी, इसलिये मेरी प्रतिष्ठा नष्ट हो गयी। अपनी शक्ति का विचार किये बिना जो लोग बलवान से मुकाबला करने दौड़ते हैं और अपने हित की बात नहीं सुनते, उन्हें मेरी तरह आपत्ति में ही पड़ना पड़ता है। कहाँ मैं वृद्ध होने पर भी परद्रोह करनेवाला-पराया राज्य हजम कर जाने वाला पापी और कहाँ बाल्यावस्था से ही परोपकार परायण यह पुण्यवान् श्रीपाल ! मुझमें और इसमें जमीन आसमान का अन्तर है । गोत्र - द्रोह करने से कीर्ति का नाश होता है। राज-द्रोह करने से नीति का नाश होता है और बाल-द्रोह करने से सद्गति का नाश होता है, मैंने यह तीनों द्रोह किये हैं, इसलिये मुझे तीनों प्रकार का भय है। संसार में जिस पापको कोई नहीं करता, उसे मैंने किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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