________________
१५६
सोलहवाँ परिच्छेद मिलता है। मनुष्य जन्म भी यदि अनार्य देश में हुआ, तो निरर्थक ही समझना चाहिये; क्योंकि वहाँ कोई धर्म का नाम भी नहीं लेता। ऐसे स्थानों में मनुष्य पाप कर्म में प्रवृत्त होता है और संसार में आसक्त होकर जीवन व्यतीत करता हुआ, वह तिर्यंच नरकादि अधोगति को प्राप्त करता है। वहाँ से फिर ऊँचे उठना उसके लिये बहुत ही कठिन हो पड़ता है। पूर्व जन्म में जिनके सुकृत्य बहुत ही प्रबल होते हैं, उन्हीं को इस आर्य देश में जन्म मिलता है। आर्य देश में जन्म होने पर भी उत्तम कुल की प्राप्ति होनी कठिन है। हीन या म्लेच्छ कुल में जन्म होने पर मनुष्य को आर्य क्षेत्र की प्राप्ति से कोई लाभ नहीं होता; क्योंकि म्लेच्छ जाति में हिंसादि पाप-कर्म कर वह पुनः अधोगति को प्राप्त होता है।
आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल और मनुष्य जन्म मिलने पर भी यदि रूप, आरोग्य और दीर्घायुष्य प्राप्त नहीं हुए, तो आर्य क्षेत्रादि की प्राप्ति निष्फल हो जाती है। रूप से उज्ज्वल वर्ण का तात्पर्य नहीं है। पाँच इन्द्रियों की सम्पूर्णता ही रूप है। यदि पाँच इन्द्रियाँ पूर्ण न हों-उनमें से नाक, कान, आँख या जीभ प्रभृत्ति में कोई दोष हो; यानी मनुष्य अंधा, काना, बहरा या गूंगा हो तो उसे यथोचित धर्म की प्राप्ति नहीं होती। शरीर के सब अवयव ठीक होने पर भी यदि वह व्याधिग्रस्त रहता है, तो धर्म की आराधना नहीं कर सकता। इसी प्रकार यदि वह अल्पायुषी होता है-छोटी उम्र में ही अपनी इहलोक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org