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श्रीपाल-चरित्र (३) आर्जव-सरलता के बिना जिस धर्म की आराधना की जाती है, वह अशुद्ध ही होता है। अशुद्ध धर्म के आराधन से मोक्ष प्राप्ति नहीं होती, इसलिये प्रत्येक मनुष्य को ऋजुभावी-सरल होना अत्यन्त आवश्यक है। (४) शौच धर्म भी अत्यन्त आवश्यक है। इसमें अन्न-पानी प्रभृति की शुद्धता को द्रव्य शौच और कषायादि रहित शुद्ध परिणति को भाव शौच कहते हैं। ज्यों-ज्यों भाव शौच की वृद्धि होती है, त्योंत्यों मोक्ष प्राप्ति समीप आती-जाती है, इसलिये इसकी भी परम आवश्यकता है। (५) संयम धर्म के पाँच आश्रवों से दूर होना, पञ्चेन्द्रियों का निग्रह करना, चार कषायों का त्याग करना, तीन दण्डों से दूर रहना-यह उसके सत्रह भेद हैं। इस सत्रह का त्याग होने पर ही आत्मा संयम धर्म में स्थिर हो सकती है, इसलिये संयम धर्म के आराधना करने की इच्छा रखनेवालों को उनसे दूर ही रहना चाहिये। (६) मुक्त धर्मबन्धु-बान्धव, धन, इन्द्रिय जनित सुख, सात प्रकार के भय, अनेक प्रकार के विग्रह, अहंकार और ममता आदि के त्याग को मुक्त धर्म कहते हैं। जबतक पौद्गलिक वस्तुओं से ममत्व बुद्धि रहती है, तबतक मुक्त धर्म (निर्लोभता धर्म) प्रकट नहीं होता। (७) सत्य धर्म-अविशंवाद योग में प्रवृत्ति करना
और मन, वचन, काया तीनों में निष्कपटता रखना, इसका प्रधान लक्षण है। स्थानांगसूत्र में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव चार प्रकार के सत्य बतलाये गये हैं। यह वर्णन केवल
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