Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 199
________________ १६० सोल हवाँ परिच्छेद जैन-दर्शन में ही पाया जाता है। अन्य दर्शनों में सत्य के पूर्ण रूप का प्रतिपादन नहीं किया गया है। इस उत्कृष्ट सत्य धर्म में प्रवृत्ति करना परमावश्यक है। (८) तप धर्म इसके बाह्य और अभ्यन्तर मिलकर बारह भेद हैं। यथाशक्ति इनका पालन अवश्य करना चाहिये; क्योंकि पूर्व संचित हीन कर्मों को क्षय करने का प्रधान साधन तप धर्म ही है। आत्मा से चिपटे हुए चिकने कर्मों को भी यह अलग कर देता है। (९) ब्रह्मचर्य धर्म-इसके १८ भेद हैं। उन अठारह भेदों को यथास्थिति समझ कर ब्रह्मचर्य का पालन करने से सब प्रकार के मनः कष्ट दूर हो जाते हैं। (१०) अन्तिम धर्म को अकिंचन धर्म-परिग्रह-त्याग कहते हैं। शास्त्रकारों ने इस धर्म में मूर्छाको ही परिग्रह बतलाया है, इसलिये सब पदार्थों पर से मूर्छा का त्याग करना चाहिये। कोई पदार्थ समीप होने पर भी यदि उसपर मूर्छा नहीं है तो वह परिग्रही नहीं कहा जा सकता। साथ ही यदि कोई भी पदार्थ समीप न होने पर भी अनेक वस्तुओं पर मूर्छा-वाञ्छना हो तो वह परिग्रही कहा जायगा। इन दस यति धर्मों में प्रवृत्ति करना ही मोक्ष प्राप्ति की प्रधान साधना है। इन दस धर्मों में सर्व प्रथम क्षमा धर्म बतलाया है। उसके इस तरह पांच भेद हैं। (१) उपचार क्षमा (२) विचार क्षमा (३) विपाक क्षमा (४) वचन क्षमा और (५) धर्म क्षमा। केवल लोगों को दिखाने के लिये ही क्षमा का आडम्बर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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