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सोलहवाँ परिच्छेद उन्हें मारना क्या आपका कर्तव्य कहा जा सकता है? पाप-शास्त्र के उपदेशकों का कथन है कि राज्य की सीमा में जो वृक्ष, घास, जल, आदि चीजें होती हैं, उनका समस्त अधिकार राजा को ही होता है, अतएव जो पशु या पक्षी, राजा की आज्ञा के बिना ही इन्हें नष्ट करते हों, या जो पशु-पक्षी प्रजा को कष्ट पहुँचाते हो, उन पशु पक्षी
और जलचरों को मारने से राजा को दोष नहीं लगता; किन्तु यह ठीक नहीं। उत्तम शास्त्रों में सर्वत्र हिंसा की निन्दा ही की गयी है। हिंसा किसी भी रूप में, किसी भी स्थान में, प्रशंसनीय नहीं हो सकती। जो स्वयं सन्ताप में पड़ता है और दूसरों को भी संताप में डालता है। वह पापी कहलाता है। शिकारी की भी इसी कोटि में गणना की जा सकती। उसे कुल-कलंक और कुल-नाशक ही कहना चाहिये। जो दुर्बल पर हाथ छोड़ता है, उसका पराक्रम व्यर्थ है। उसके कार्यों से संसार में अपयश ही प्राप्त होता है और यह है भी स्वाभाविक। कोयला खाने से मुँह काला ही होता है।”
इस प्रकार रानी अनेक प्रकार से राजा को समझाती थी, किन्तु राजा के हृदयपर इसका कुछ भी प्रभाव न पड़ता था। जिस प्रकार पुष्करावर्त्तमेघ के बरसने पर भी मगसलिया पाषाण भीगता नहीं, उसी प्रकार चाहे जैसा उपदेश देनेपर भी मूर्ख पर कोई असर नहीं होता। कई बार तो उसे
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