Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 208
________________ श्रीपाल-चरित्र १६९ हित वचन भी कटु प्रतीत होते हैं और उनसे बोध ग्रहण करने के बदले वह क्रोध प्रकट करता है, अस्तु। एक बार वह राजा सात सौ उद्दण्ड कर्म चारियों को साथ लेकर शिकार खेलने गया। वहाँ किसी गहन वन में उसने एक मुनि को देखा। देखते ही वह अपने साथियों से कहने लगाः- “देखो, यह कोई कोढ़ी जा रहा है।” उसकी बात सुनते ही वे लोग उसे बेतरह मारने और अपमानित करने लगे। मुनिपर ज्यों-ज्यों मार पड़ती थी, त्यों-त्यों राजा को आनन्द आता था और वह हँसता था। उधर मुनि के हृदय में शान्त रसकी अविच्छिन्न धारा बह रही थी। वे न तो बोलते थे, न चालते थे, न किसी के इस कार्य का विरोध ही करते थे। राजा के नौकरों ने उनको अत्यन्त कष्ट दिया। तदनन्तर वे सब लोग उन्हें वहीं छोड़ अपने निवास-स्थान को लौट आये। एक दिन राजा अकेला ही शिकार खेलने गया। वहाँ उसने एक मृग का पीछा किया, किन्तु मृग भाग कर नदी-तटके एक जंगल में घुस गया। राजा भी उसके पीछे-पीछे जंगल में घुसा; किन्तु वह उस जगह रास्ता भूल गया। भटकता हुआ बड़ी देर में नदी के तट पर पहुँचा। वहाँ उसने एक मुनि को काउसग्ग ध्यान में निमग्न देखा। उन्हें देखते ही राजा को शैतानी सूझी। उसने मुनि को कान पकड़ कर उठाया और नदी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258