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श्रीपाल - चरित्र
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धान्यादिक की प्राप्ति के लिये जो क्रियायें की जाती हैं, उन्हें गरल क्रिया कहते हैं । जिस प्रकार पागल कुत्ते का विष दो तीन वर्ष तक असर करता है, उसी प्रकार यह क्रियायें भी दो-तीन जन्म तक सांसारिक फल देती हैं किन्तु इनके द्वारा चारित्र धर्म का वास्तविक फल प्राप्त नहीं होता। दूसरों को क्रिया करते देख उनकी विधि जाने बिना ही संमूर्छम की भाँति उठना-बैठना और क्रिया करना, किन्तु उनका अर्थ न समझना - अनुष्ठान क्रिया कहलाती है । यह क्रिया केवल खान-पान के प्रलोभ के ही कारण की जाती है। इसमें शास्त्रोक्त विधि किंवा गुरु के प्रति विनय विवेक प्रभृति बातों का पता भी नहीं रहता । जो सम्पूर्ण बैराग्य से और भद्रिक परिणाम से, गुरु का उपदेश सुनकर संसार के सब भाव अनित्य समझ, संसार से विरक्त हो, चारित्र लेता है और शुद्ध राग तथा पूर्ण मनोरथ से जो क्रिया करता है, वह तद्धेतु क्रिया कहलाती है। इसकी विधि शुद्ध नहीं होती, किन्तु क्रिया करने से अन्त में शुद्ध हो जाती है। शुद्ध विधि से, आत्मा के शुद्ध अध्यवसाय-पूर्वक जो क्रिया की जाती है, वह अमृत क्रिया कहलाती है। यह क्रिया करनेवाले प्राणी विरले ही दिखाई देते हैं; किन्तु यह क्रिया चिन्तामणि रत्न के समान है। इसके बिना इस संसार से निस्तार पाना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव होता है, इसलिये निरन्तर इस क्रिया की प्राप्ति के लिये उद्योग करते रहना चाहिये ।
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