Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta

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Page 203
________________ १६४ सोलहवाँ परिच्छेद हे भव्य प्राणियो! इस प्राणी ने भूतकाल में अनेक बार द्रव्यलिंग धारण किया है और क्रियायें भी की हैं ; किन्तु वे क्रियायें शुद्ध न होने के कारण उनके फल की प्राप्ति नहीं हुई। जिस समय जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और अर्धपुद्गल परावर्तन संसार रह जाता है, तभी शुद्ध क्रिया की प्राप्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं। __ अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-यह नवपद मुक्ति के वास्तविक साधन हैं। अर्थात् इन नवपदों की साधना करने से प्राणी मुक्ति-सुख को प्राप्त कर सकता है। इन नव पदों के ध्यान से आत्मस्वरूप प्रकट होता है और जिसे आत्म दर्शन हो जाता है, उसके लिये संसार मर्यादित हो जाता है-उसकी अपरिमितता नष्ट हो जाती है। जिस प्रकार दर्शन शब्द में सम्यक्त्व की प्रधानता है उसी प्रकार उसमें ज्ञान की भी प्रधानता है। ज्ञानी अर्ध क्षण में जितने कर्मों का क्षय कर सकता है, अज्ञानी करोड़ों वर्ष पर्यन्त तीव्र तप करने पर भी उतने कर्मों का क्षय नहीं कर सकता। ज्ञानी तपस्या से भी कार्य सिद्ध कर सकता है। एक प्राणी यदि ज्ञान की वृद्धि करे और दूसरा तप की वृद्धि करे, तो उन दोनों में ज्ञानी प्रथम मुक्ति प्राप्त कर लेता है अर्थात् ज्ञानी तपस्वी से बाजी मार ले जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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