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सोलहवाँ परिच्छेद
सामायिक चारित्र, चतुर्विंशति स्तव तथा वन्दना यह तीनों देवगुरु के सेवा रूप होने के कारण भक्ति अनुष्ठान रूप माने जाते हैं । आगम के कथनानुसार ज्ञान क्रियादिक बारंबार समझ कर तदनुसार प्रवृत्ति करना वचनानुष्ठान कहलाता है। दण्डसे कुछ समय तक चक्र को घुमाने के बाद फिर वह बहुत देर तक जिस प्रकार अपने-ही- आप घुमा करता है, उसी प्रकार दीर्घकाल पर्यन्त सेवन करने के कारण जो अनुष्ठान अनायास सफल होता है, उसे असंग अनुष्ठान कहते हैं ।
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इसके अतिरिक्त यति और श्रावकों द्वारा सम्पन्न होनेवाली क्रियाओं के इस तरह पाँच भेद हैं । - (१) विषक्रिया (२) गरलक्रिया (३) अनुष्ठान (अन्योन्य) क्रिया (४) तद्धतु क्रिया और (५) अमृत क्रिया । इनमें से प्रथम तीन क्रियायें त्याज्य हैं और अन्तिम दो क्रियायें आदरणीय हैं; क्योंकि उनसे मुक्ति प्राप्त होती है। जो क्रियायें केवल लोगों को दिखानेके लिये ही की जाती हैं और जो इहलौकिक सुख के लिये एवम् खान-पान, कपड़े लत्ते, आदि की इच्छा से की जाती हैं, वे विषक्रिया कहलाती हैं। जिस प्रकार विष खाने से उसी क्षण मृत्यु होती है, उसी प्रकार इन क्रियाओं का फल भी हाथोहाथ मिल जाता है-उस जन्म के लिये तो कुछ भी नहीं बचता, इसे कपट क्रिया भी कहते हैं । दूसरे जन्म में देव, इन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती - आदि के सुख किंवा स्त्री, पुत्र, धन
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