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श्रीपाल-चरित्र
१५७ लीला समाप्त कर देता है, तो आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल, संपूर्ण पञ्चेन्द्रियाँ और आरोग्य यह कोई भी उसे काम नहीं आते। उस अवस्था में, वह केवल मनुष्य का नाम धारण कर इस असार संसार से प्रस्थान कर जाता है।
आर्य-क्षेत्र, उत्तम कुल, आरोग्यता, दीर्घायुष्य प्रभृति मिलने पर भी सद्गुरु की प्राप्ति होनी कठिन है। युगलियों के क्षेत्र में सद्गुरु की प्राप्ति होती ही नहीं। कर्म-भूमि आर्य देश में भी बड़ी कठिनाई से सद्गुरु मिलते हैं। पूर्व जन्म के शुभ कर्म प्रबल होनेपर ही सद्गुरु की प्राप्ति होती है। यदि पुण्ययोग से सद्गुरु की प्राप्ति होती भी है, तो उनसे लाभ ग्रहण करते, तेरह काठिये बाधा देते हैं। जिससे सद्गुरु का लाभ होना कठिन हो पड़ता है। यदि तेरह काठियाओं को दूर कर मनुष्य गुरु के पास जाता है और उनके दर्शन करता है, तो मिथ्यामति होने के कारण उनकी सेवा-भक्ति नहीं कर पाता। यदि पुण्य-संयोग से गुरुसेवा करने की इच्छा कर उनके समीप बैठता है तो धर्मोपदेश सुनना कठिन हो जाता है ; क्योंकि उसके इस कार्य में निद्रा प्रभृति प्रमाद बाधा देते हैं। यदि पुण्य संयोग से वह धर्मोपदेश श्रवण करता रहता है, तो उसपर श्रद्धा उत्पन्न होना कठिन हो पड़ती है ; क्योंकि सामान्य जीवों में तत्व बुद्धि का अभाव होता है। अनेक मनुष्य धर्मोपदेश सुनकर श्रृंगारादि कथा रस में लीन होते हैं, इसके फलस्वरूप वे अपने सद्गुण भी खो बैठते हैं। तत्त्व
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