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पन्द्रहवाँ परिच्छेद लिये उत्साहित किया। चारों ओर वीरता और उत्साह का मानों समुद्र उमड़ रहा था। दोनों ओर की सेनायें युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गयीं। सूर्य भी तिमिर शशि का निकन्दन करने के लिये रुद्र रूप धारण कर इसी समय पूर्व ओर उदयाचल पर आ डटे।
बस, अब सेनापति का आदेश मिलने भर की ही देर थी। दोनों ओर रण-स्तम्भ रोपित हो जानेपर सेनापति ने शंख-ध्वनि कर युद्ध करने की आज्ञा दे दी। आज्ञा मिलते ही पैदल से पैदल और घुड़सवारों से घुड़सवार भिड़ गये। वर्षा की भाँति बाण-वृष्टि होने लगी। आकाश में ध्वजायें फरकने लगीं। बिजली की तरह तलवारें चमकने लगीं और सैनिकों की हुंकार से सारा आकाश गूंज उठा। किसी-किसी समय ऐसा मालूम होता था, मानों वर्षा ऋतु
आ गयी है। भयंकर और विश्वाल तोपों की गोलाबारी के समय जो गर्जना होती थी, वह मेघ गर्जना का भास कराती थी। गोला, जमीनपर गिरते ही अनेक शत्रुओं का काम तमाम कर देता था। कहीं कोई शत्रु का शिर उड़ाये देता था, तो कोई शत्रु के बाणों का प्रतिकार करता था। कोई मदोन्मत्त हाथियों के गण्डस्थल छेद रहा था, तो कोई अपने वीर नाद से शत्रुओं को आतंकित कर रहा था। चारण लोग इस समय भी बिरदावली सुना-सुना कर शूर-वीरों को उत्साहित कर रहे थे। इस समय जुझाऊ बाजे अन्ततक लड़ने के लिये नवजीवन का संचार कर
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