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श्रीपाल-चरित्र
१४५ रहे थे। यह सब देख सुनकर श्रीपाल के सैनिक मानों मदोन्मत्त होकर झूमने लगे।
सेनापति ने उचित अवसर देखकर सैनिकों को शत्रुदल में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी। आज्ञा मिलते ही सब उसी
ओर पिल पड़े। देखते-ही-देखते न जाने उन्होंने कितनों के शिर उड़ा दिये और न जाने कितने घोड़े-हाथी और रथों का सर्वनाश कर डाला। श्रीपाल के सैनिकों की इस मार से अजीतसेन की सेना में भगदड़ मच गयी। अजीतसेन अब तक दूर ही से सब रंग देख रहा था। जब उसने देखा, कि उसकी सेना में विश्रृंखलता उत्पन्न हो गयी, तब वह स्वयं अपने सैनिकों को उत्साहित करता हुआ युद्धक्षेत्र में कूद पड़ा। उसने अपने वीरों को ललकार कर कहा, कि उनके लिये नमक अदा करने का युद्ध में प्राण देकर अपने स्वामी की लाज बचाने का यही पहला वीरोचित अवसर है।
इधर श्रीपालकुमार के सात सौ सेनानायकों ने जब देखा, कि अजीतसेन स्वयं रणक्षेत्र में उपस्थित हुआ है, तब उन्होंने चारों ओर से उसे घेर लिया और जब वह भली-भाँति उनके चक्र में फँस गया, तब उन्होंने कहा:- “राजन्! अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। यदि इस समय भी आप अहंकार छोड़कर कुमार की अधीनता स्वीकार कर लें, तो वे आपको क्षमा कर देंगे।” किन्तु अजीतसेन पर इन शब्दों का कोई प्रभाव न पड़ा, बल्कि वह और जोर से उन सेनानायकों पर शस्त्रास्त्र के वार करने लगा। सेनानायकों ने भी उसकी यह
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