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ग्यारहवाँ परिच्छेद कुछ ही दिनों के बाद, राज-कुमारी एवं उससे पाणिग्रहण करने के इच्छुक लोगों की, वीणावादन-कला की परीक्षा के निमित्त एक विराट सभा का आयोजन किया गया। इस कलाके कई विद्वान् पण्डित मध्यस्थ बनाये गये। राज-कुमारी सरस्वती की भाँति हाथ में वीणा और पुस्तक लेकर सभा में उपस्थित हुई। अन्यान्य लोगों के साथ जब श्रीपाल भी वहाँ पहुँचे, तो उनका विरूप रूप देखकर दरवान ने उन्हें अन्दर जाने से रोका। तुरंत ही कुमार ने उसे एक रत्नाभूषण इनाम देकर राजी कर लिया और सभा-भवन में पहुँच गये।
सभा-भवन में जाते ही श्रीपाल ने एक कौतुक किया। दूसरों की दृष्टि में विरूप होते हुए भी उन्होंने राज-कुमारी को अपना प्रकृत रूप दिखा दिया। उनका वह देवकुमारसा रूप-सौन्दर्य देख कर राज-कुमारी मोहित हो गयी। वह मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि:- "हे नाथ ! इसी पुरुष को मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण करने की शक्ति दीजिये, जिससे इसी के साथ मेरा विवाह हो और मेरा जन्म सार्थक हो। यदि इसने मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण न की तो मैं किसी अयोग्य पुरुष के साथ विवाह करने की अपेक्षा आजन्म कुमारी ही रहना अधिक पसन्द करूँगी।"
जिस समय सब लोग सभा में आये उस समय सभापति ने राज-कुमारों एवं अन्य लोगों को अपनाअपना कला-कौशल दिखाने की आज्ञा दी। सभी पुरुषों
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