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बारहवाँ परिच्छेद अवश्य ही देखने योग्य था, किन्तु अब समय नहीं रहा! क्योंकि आषाढ़ शुक्ला पञ्चमी तो कल ही है।"
यात्री की यह बातें सुन, श्रीपाल को कञ्चनपुर जाने की पूर्ण इच्छा हो गई। उन्होंने पूर्ववत् अपना रूप बदल लिया। तदनन्तर कञ्चनपुर का ध्यान करते ही वे, देव-प्रदत्त हार के प्रभाव से दूसरे दिन प्रातःकाल वहाँ पहुँच गये।
शहर की शोभा देखते हुए श्रीपाल कुमार स्वयंवरमण्डप के पास पहुँचे। दरवान ने उनका विरूप देखकर उन्हें भीतर में प्रवेश करने से रोका, किन्तु कुमार ने उसे एक आभूषण देकर उसकी सम्मति प्राप्त कर ली। वे मण्डप में प्रवेश कर मणि की पुतली के पास जा बैठे। वहाँ अनेक राज-कुमार और राजा-महाराजा बैठे हुए थे। वे सब श्रीपाल को देखकर उनका उपहास करने लगे। किसी ने पूछा :"महाराज! कहिये, आप यहाँ क्यों आये हैं?" श्रीपाल ने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया:-"जिस काम के लिये आप आये हैं, उसी काम के लिये मैं भी आया हूँ।” कुमार का यह उत्तर सुन, लोग ठठाकर हँस पड़े। कहने लगे:-"ठीक है, कुमारी, अवश्य आपको ही पसन्द करेंगी। क्योंकि उसे आप जैसा रूपवान और गुणवान दूसरा वर और कहाँ मिलेगा?"
जिस समय इस प्रकार हँसी-दिल्लगी हो रही थी, उसी समय राज-कुमारी भी वहाँ आ पहुँची। उसके आते ही सभामण्डप उसके अलौकिक तेज के कारण आलोकित हो उठा। एकबार मानो बिजली चमक गयी।
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