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श्रीपाल-चरित्र
१३७ देखकर मुझसे रहा न गया। मेरा दुख उमड़ पड़ा, इसलिये मैंने अपने आपको प्रकट कर दिया। कर्म-भोग के सिवा इसे मैं और क्या कहूँ! जिस समय मैनासुन्दरीपर मैंने दुःख पड़ते देखा था, उस समय मैं मन-ही-मन प्रसन्न और गर्वित हुई थी; किन्तु आज मुझे उसी मैना-पति का दासत्व अंगीकार करना पड़ा। अभिमान का फल मुझे हाथों-हाथ मिल गया। अब मुझे यह पूर्ण विश्वास हो गया है, कि मैनासुन्दरी हमारे वंश में विजय-पताका के समान है। मैना को जैनधर्म रूपी कल्पवृक्ष
के मधुर फल चखने को मिले और मैं मिथ्यावाद रूपी विषवृक्ष के विषैले फल चख रही हूँ। एक ही समुद्र से निकले हुए अमृत और विष में जिस प्रकार जमीन आसमान का अन्तर होता है। उसी प्रकार मुझमें और मैनासुन्दरी में अन्तर है। मैना दोनों कुल के मुख को उज्ज्वल करने वाली मणिदीपिका के समान है; किन्तु मैं सावन की अँधेरी रात जैसी हीन हूँ। मैना के दर्शन से प्राणियों का कल्याण हो सकता है, मुझे देखकर उन्हें पाप लग सकता है।"
इस प्रकार मैना सुन्दरी की वास्तविक प्रशंसा कर सुरसुन्दरी ने सबके आनन्द में ऐसी बृद्धि की, जैसी नाटक देखने से शायद ही होती है। श्रीपाल और उनकी माता प्रभृति ने सुरसुन्दरी को बहुत आश्वासन दिया। मैनासुन्दरी ने भी उसे गले से लगाकर बहुत ही प्यार किया। अब सुर सुन्दरी नटी का वेश त्यागकर मैनासुन्दरी के साथ रहने लगी। कुछ
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