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पन्द्रहवाँ परिच्छेद
मन्त्री की यह बात श्रीपाल के मन में जँच गयी। उन्होंने कहा :- “तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है । मुझे अपने पिता का राज्य हस्तगत करना ही चाहिये; किन्तु मेरा कहना यह है कि यदि साम से काम निकलता हो. तो दण्ड-नीति से काम क्यों लिया जाय ? यदि गुड़ देने से ही काम निकलता हो, तो विष क्यों दिया जाय ?"
मन्त्री ने कहा :- "अच्छा, ऐसा ही किया जाये । पहले अजीतसेन के पास एक दूत भेजकर उसे अच्छी तरह समझा दिया जाये । अनन्तर यदि वह समझबूझ कर अपने आप ही राज्य लौटा दे, तो युद्ध का कोई झमेला न किया जाये।"
श्रीपाल ने कहा:- “हाँ, मेरी भी यही राय है, वैसे ही कीजिये ।"
मन्त्री और श्रीपाल की इस सलाह के अनुसार चतुर्मुख नामक एक चतुर दूत, उसी दिन चम्पानगरी की ओर भेज दिया गया। वह यथा समय चम्पानगरी पहुँचा । वहाँ पहुँचने पर अजीतसेन की सभा में उपस्थित हुआ । अजीतसेन ने उसे बैठने के लिये समुचित आसन दिया । दूत से जब उसके आगमन का कारण पूछा गया, तब उसने अजीतसेन से कहा:- "राजन्! आपने श्रीपाल कुमार को बालक समझकर बाल्यावस्था में विद्या और कलाओं का सम्पादन करने के लिये विदेश भेजा था, सो
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