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श्रीपाल-चरित्र
१४१ अब उन्होंने सब विद्या और कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। उन्होंने चतुरंगिणी सेना भी एकत्रित कर ली है। अब वे आपके शिर से राज्य-भार उतारना चाहते हैं। आपकी भी उम्र बड़ी हो चली है। ऐसी अवस्था में आपको स्वयं समझबूझ कर राज्य-भार से मुक्त हो जाना चाहिये। मैं समझता हूँ कि श्रीपाल का प्रताप आपसे छिपा न होगा। इस समय अनेक राजे महाराजे उनके अधीन हैं और अनेक उनके आश्रय में रहते हैं। आपको भी उनका अनुकरण करना चाहिये था। आपने वैसा न कर उनसे विरोध खड़ा किया है; किन्तु वह अनायास ही विरोध को दूर कर सकते है; क्योंकि
आपमें और उनमें बड़ा ही अन्तर है। कहाँ राई और कहाँ पर्वत? कहाँ तारा और कहाँ शरद्चन्द्र? कहाँ खद्योत और कहाँ सूर्य? कहाँ मृग शावक और कहाँ पंचानन सिंह? कहाँ हिंसा-युक्त यज्ञ और कहाँ दया प्रधान जैनधर्म? कहाँ झूठ
और कहाँ सत्य? कहाँ काँच और कहाँ रत्न? इन सबों में उत्तम वस्तुओं के स्थान में श्रीपाल और नीच वस्तुओं के स्थान में आपकी गणना की जा सकती है। आपमें और उनमें सचमुच ऐसा ही अन्तर है। मैं आपसे यही निवेदन करना चाहता हूँ, कि यदि आपको अपने प्राणों की ममता हो, तो अहंकार छोड़कर, उनके पास चलिये और उनका राज्य उनके हाथों में सौंपकर अपने कर्तव्य का पालन कीजिये। अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हो जाइये; किन्तु यह भी स्मरण
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