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तेरहवाँ परिच्छेद
__ श्रीपाल ने कहा :-"अच्छा, चलो, मुझे उस कुमारी के पास ले चलो। संभव है, कि मैं उसका विष उतार सकूँ।" ।
इतना कह, श्रीपाल ने उसी समय अपने मन्त्रियों के साथ घोड़ेपर सवार हो, नगर में प्रवेश किया। उस समय राज-कुमारी का अग्निसंस्कार करने के लिये सब लोग श्मशान पहुँच चुके थे। श्रीपालकुमार भी झटपट घोड़े को एड़ी लगाते हुए वहाँ जा पहुँचे। चिता तैयार हो चुकी थी। केवल अग्नि देने भर की देर थी। मन्त्रियों ने तुरन्त वहाँ पहुँच कर राजा से कहा :- "ठहरिये, अभी आग मत दीजिये। हमारे राजा इसे जीवित कर देंगे।"
सब लोग आश्चर्य-पूर्वक श्रीपाल और उनके मन्त्रियों की ओर देखने लगे। श्रीपाल कुमार के आदेशानुसार राज कुमारी को चिता से उतार कर भूमि पर सुला दिया गया। तदनन्तर श्रीपाल ने उस हार को धोकर वही जल उसपर छिड़क दिया। जल के छींटे पड़ते ही राजकुमारी अलसाती हुई उठ बैठी। यह देखकर लोगों को बहुत ही आनन्द हुआ। वे बारंबार हर्षनाद करने लगे; किन्तु राज-कुमारी को यह सब देख कर बड़ा ही आश्चर्य हो रहा था। उसकी समझ में यह बात न आती थी, कि श्मशान भूमि में इतने लोगों के बीच में वह जमीन पर क्यों सो रही थी। उसने उत्कण्ठा पूर्वक अपने पिता की ओर देखा। पिताने कहा :-“बेटी!
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