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चौदहवाँ परिच्छेद माता और स्त्री की यह बातें सुनकर श्रीपाल का हृदय पुलकित हो उठा, उससे अब और अधिक समय तक चुप न रहा गया। वे तुरन्त ही अपनी माता को पुकार उठे। सुनते ही माता ने कहा:- “यह मेरे पुत्र का ही शब्द है। जिन-वचन कभी झूठे नहीं हो सकते।” यह कहती हुई वह उठीं और बड़े प्रेम से द्वार खोले। श्रीपाल ने माता को बड़े ही आदर से प्रणाम किया। मैनासुन्दरी ने भी अपने पति के चरण स्पर्श किये। उन्होंने उसे प्रेम की दृष्टि से देखकर निहाल कर दिया।
साधारण बातचीत के बाद, श्रीपाल कुमार माता को कन्धे और पत्नी को हाथ पर बैठाकर, हार के प्रभाव से आकाश मार्गद्वारा अपने शिविर में आ पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपनी माता को सिंहासन पर बिठाकर आप उनके सामने आ बैठे। उनकी आठों नव-विवाहिता रानियों ने भी आकर माता और मैनासुन्दरी के चरण स्पर्श किये। माता ने सबों को शुभाशीष दी और नासुन्दरी ने मधुर वचनों द्वारा सबका स्वागत किया। अनन्तर श्रीपाल ने माता को समस्त पूर्व वृत्तान्त आद्योपान्त कह सुनाया। अन्त में उन्होंने कहा:-'यह सब गुरुप्रदत्त नवपद के आराधन का ही प्रताप है।” पुत्र की यह बातें सुनकर माता को बहुत ही आनन्द हुआ। उनके जीवन में इससे बढ़कर आनन्द का अवसर शायद ही किसी समय उपस्थित हुआ हो। अस्तु !
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