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श्रीपाल - चरित्र
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अब श्रीपाल ने मैनासुन्दरी से कहा :- "प्रिये ! मेरी बातों से तुम यह तो जान ही चुकी होगी कि, सिद्धचक्र के प्रताप से उज्जयिनी की हथिया लेना मेरे लिये कुछ भी कठिन नहीं है । तुम्हारे पिता ने अभिमानवश जैनधर्म का अपमान किया था, न केवल धर्म का ही अपमान किया था, बल्कि सच्ची बातें कहने के कारण तुम्हारा जीवन भी दुःखमय बनाने में कोई कसर न रक्खी थी। अब मैं तुम्हारे पिता को उनकी यह भूल दिखा देना चाहता हूँ, कि उन्होंने क्रोधावेश में आकर कैसा अनुचित कार्य किया था; किन्तु फिर भी कर्म की रेख पर वे मेख न मार सके । अब तुम मुझे यह बतलाओ कि उन्हें किस रूप में और किस प्रकार यहाँ उपस्थित होने को बाध्य किया जाय ?"
मैनासुन्दरी ने कहाः - "नाथ ! आप खुद समझदार हैं। मैं आपको भला क्या बता सकती हूँ। फिर भी यदि आप मेरा अभिप्राय जानना ही चाहते हैं, तो मुझे कहने में कोई आपत्ति नहीं है । मेरी समझ में, पिताजी का अभिमान दूर करना सबसे अधिक आवश्यक है। इसलिये उन्हें कन्धेपर कुल्हाड़ी रख कर नम्रतापूर्वक यहाँ उपस्थित होने को कहना चाहिये। इससे उनका अभिमान दूर हो जायगा, एवं इसके फल स्वरूप न केवल उनका ही कल्याण होगा, बल्कि दूसरों को भी शिक्षा मिलेगी।”
मैनासुन्दरी की यह बात श्रीपालने सहर्ष स्वीकार कर ली। उसी समय उन्होंने एक दूत द्वारा मालवराज को यह
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