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तेरहवाँ परिच्छेद
दिन उसने मुझसे प्रश्न किया कि राधावेध किसे कहते है? तब मैंने उसे राधावेध का वर्णन करते हुए बतलाया, कि एक स्तम्भपर आठ चक्र लगाये जाते हैं। इनमें से चार चक्र उत्तर की ओर और चार चक्र दक्षिण की ओर घूमते हैं। दोनों ओर के चक्रों के ऊपर एक पुतली ठायी जाती है। उस पुतली को राधा कहते हैं। जब चक्र घूमते हैं, तब उनके किनारे पर जो दाँत बने रहते हैं, उनमें से वह पुतली दिखायी देती है स्तम्भ के नीचे तेल से भरा हुआ एक कड़ाह रख दिया जाता है। उसमें चक्र और पुतली का प्रतिबिम्ब पड़ता है। वेध करनेवाले को कड़ाह में वह प्रतिबिम्ब देखते हुए ऊपर की
ओर बाण छोड़ना पड़ता है। अगर बाण चक्र के दाँतों में बिना लगे ही ऊपर निकल जाता है और पुतली की बायीं
आँख छेद देता है, तो वह वेध करनेवाला विजयी समझा जाता है, किन्तु यह बहुत ही कठिन कार्य है। सब कोई इसे नहीं कर सकते। किसी विरले ही मनुष्य को यह सफलता मिलती है। राज-कुमारी ने मेरी यह बात सुनकर उसी दिन प्रतिज्ञा की है कि जो राधा वेध में सफलता प्राप्त करेगा, उसी को मैं अपना पति बनाऊँगी। इसलिये हे राजन्! आप एक बड़ा मण्डप बनवा कर राधावेधका आयोजन कीजिये और उसमें भाग लेने के लिये देश-देशान्तर के राजा और राजकुमारों को निमन्त्रण भेजिये। इस कठिन परीक्षा में जो उत्तीर्ण होगा, वही राज-कन्या के पाणि ग्रहण का अधिकारी होगा।"
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