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ग्यारहवाँ परिच्छेद
को कुण्डलपुर नगर के दरवाजे पर खड़ा पाया। वहाँ का दरवान भी खड़ा-खड़ा वीणा बजा रहा था। श्रीपाल ने नगर में प्रवेश करने के पहले अपना रूप बदल डालना आवश्यक समझा। अतएव इच्छा करते ही उनका सुन्दर शरीर विरूप हो गया। लम्बा मुँह, तुम्बड़ी जैसा शिर, छोटी-छोटी आँखें, बेढंग दांत, बड़े होंठ, चिपटी नाक, गिटकी जैसे कान, बड़ासा कूबड़, पीठ से मिला हुआ पेट, छोटी-छोटी जाँघे, वामन के से पैर, ठुमकती हुई चाल प्रभृति देखते ही बनती थीं। उन्होंने इसी विचित्र वेश में प्रवेश किया।
श्रीपाल का यह रूप देख कर लोग उनकी हँसी उड़ाने लगे। वे जिधर ही जाते उधर ही लोग उन्हें घेर कर खड़े हो जाते। किसी तरह जब आगे चलते, तो लड़कों का झुण्ड पीछे से तालियाँ बजाता। खैर, किसी तरह कुमार चलते हुए उस गायनाचार्य के यहाँ पहुँचे, जो अनेक राज-कुमारों को शिक्षा दे रहा था। वहाँ पर जितने राज-कुमार उपस्थित थे, वे सभी श्रीपाल को देखते ही हँस पड़े। कहने लगे :– “आइये वामनजी! कहिये, कहाँ से सवारी आ रही है? कहाँ जाइयेगा? आज आप किसका घर पवित्र कर मनोकामना पूरी करेंगे?"
श्रीपाल ने कहाः-“भाइयो ! मैं बहुत दूर से आ रहा हूँ। जिस काम के लिये आप लोग यहाँ कष्ट उठा रहे हैं, उसी काम के लिये मैं भी आया हूँ। आप लोग अभी मुझे देख कर हँस रहे हैं, किन्तु ईश्वर ने चाहा, तो मैं थोड़े ही दिनों में आप लोगों से आगे बढ़ कर राजसम्मान प्राप्त करूँगा।"
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