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ग्यारहवाँ परिच्छेद
रहे हैं। अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि सारे शहर में जिसे देखिये वही इस उधेड़बुन में लगा हुआ दिखायी देता है। बाजार में देखिये, बनिया अपनी दुकानपर बैठा हुआ वीणा बजा रहा है। जंगल में देखिये, चरवाहे पशु चराते हु वीणा बजाने का अभ्यास कर रहे हैं। खेतों में देखिये, किसान भी वीणा ही बजा रहे हैं। चारों ओर जिधर जाइये, उधर वीणा का ही मधुर स्वर सुनायी देता है । व्यापारियों का व्यापार करने की ओर ध्यान नहीं जाता। किसान खेती करना भूल जाते हैं। चरवाहे गौओं को जंगल ही में छोड़कर वीणा की धुन में न जाने कहाँ चले जाते हैं । यह सब बाते देख कर हम लोग आश्चर्य से चकित हो गये हैं। अब तक उस राज - कुमारी को वीणा - वाद में कोई जीत नहीं सका । वह जितनी सुशील और सुन्दरी है, उतनी ही गुणवती भी है। यदि आप उसे एक बार देखेंगे, तो निश्चय हमारी बातों पर विश्वास हो जायेगा ।”
सरदार ने यह सब बातें बतलाकर विदा माँगी । कुमार ने भी इनाम देकर उसे बिदा किया । अनन्तर शाम को जिस समय वे अपने महल में आये, उस समय मन में सोचने लगे कि जैसे भी हो, यह कौतुक देखने के लिये कुण्डलपुर जाना चाहिये, किन्तु यह कार्य कैसे हो सकेगा? यह नगर तो यहाँ से बहुत दूरी पर है । वहाँ हम कैसे पहुंच सकते हैं। पँख होते तो जरूर वहाँ उड़ कर पहुँच जाते और यह कौतुक देखते,
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